पत्रकारिता दिवस: दम तोडती निष्पक्ष मिशनरी पत्रकारिता
सुबह का अखबार या फिर समाचार चैनल कैसा हो? समाचार पत्रों व समाचार चैनलों पर क्या परोसा जाए? क्या नकारात्मक समाचारों से परहेज कर सकारात्मक समाचारों की पत्रकारिता संभव है ?क्या धार्मिक समाचारों को समाचार पत्रों में स्थान देकर पाठको को धर्मावलम्बी बनाया जा सकता है ? ब्रहमाकुमारीज के मीडिया सम्मेलनों में प्रायः एक स्वर में निर्णय लिया गया है कि
व्यक्तिगत एवं राष्टृीय उन्नति के लिए उज्जवल चरित्र व सांस्कृतिक निर्माण के सहारे सकारात्मक समाचारों को प्राथमिकता देकर मीडिया सामग्री में व्यापक बदलाव किया जाए।
विकास से सम्बन्धित समाचारों,साक्षता,संस्कृति,नैतिकता और आध्यात्मिक मूल्य जैसे मुददों का समावेश कर स्वस्थ पत्रकारिता का लक्ष्य निर्धारित किया जाए। आज देशभर में हजारों समाचार पत्र व 700 से अधिक चैनल चल रहे है। जिनमें से कई समाचार पत्र व चैनल ऐसे है जो समाज के सुदृडीकरण के लिए खतरनाक है। इन समाचार पत्रों व चैनलों पर इतनी अश्लीलता पड़ोसी जाती है जिस कारण उसे पूरा परिवार एक साथ बैठकर पढ़ व देख नही सकता। ऐसे समाचार पत्रों व चैनलों पर कोई रोक भी
नही है। इसलिए ऐसे समाचार पत्रों व चैनलों को ऐसी आपत्तिजनक सामग्री परोसने के बजाए समग्र परिवार हित की सामग्री परोसने पर विचार करना चाहिए। ऐसे समाचारों को परोसने से परहेज करना चाहिए जिसको चैनल पर देखकर या फिर अखबार में पढकर मन खराब होता हो या फिर दिमाग में तनाव उत्पन्न होता हो।
आज के बदलते दौर में हिन्दी पत्रकारिता के भी मायने बदल गए है। दुनिया को मुठठी में करने के बजाए पत्रकारिता गली मोहल्लो तक सिकुडती जा रही है। अपने आप को राष्टृीय स्तर का बताने वाले समाचार पत्र क्षेत्रीयता के दायरे में और क्षेत्रीय स्तर का बताने वाले समाचार पत्र स्थानीयता के दायरे में सिमटते जा रहे है। जो पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नही है। सही मायने में पत्रकारिता का अर्थ अपनी और दुसरों की बात को दूर तक पंहुचाना है। साथ ही यह भी जरूरी है कि किस घटना को खबर बनाया जाए और किसे नही? आज की पत्रकारिता बाजारवाद से ग्रसित होने के साथ साथ मूल्यों की दृष्टि से रसातल की तरफ जा रही है। बगैर कार्यक्रम हुए ही कपोल कल्पित कार्यक्रम की खबरे आज अखबारो की सुर्खिया बनने लगी है,सिर्फ नाम छपवाने के लिए जारी झूठी सच्ची विज्ञप्तियों के आधार पर एक एक खबर के साथ बीस बीस नाम प्रकाशित किये जाने लगे है जो पत्रकारिता की विश्वसनीयता को न सिर्फ प्रभावित कर रहे है बल्कि ऐसी पत्रकारिता पर सवाल उठने
भी स्वाभाविक है। इसके पीछे अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि जितने ज्यादा नाम प्रकाशित होगे, उतना ही ज्यादा अखबार
बिकेगा, लेकिन यह पत्रकारिता के स्वास्थ्य के लिए ठीक नही है । ठीक यह भी नही है कि प्रसार संख्या बढाने की गरज से समाचार पत्र को इतना अधिक स्थानीय कर दिया जाए कि वह गली मोहल्ले का अखबार बन कर रह जाए। आज हालत यह है कि ज्यादातर अखबार जिले और तहसील तक सिमट कर रह गए है। यानि एक शहर की खबरे दूसरे शहर तक नही
पंहुच पाती।उत्तराखण्ड के सीमावर्ती कस्बे गुरूकुल नारसन और मुजफफरनगर जिले के पुरकाजी कस्बे में मात्र 4 किमी का अन्तर है लेकिन जिला और प्रदेश बदल जाने के कारण एक कस्बे की खबरे दूसरे तक नही पंहुच पाती है।इससे पाठक स्वयं को ठगा सा महसूस करता है। ऐसा नही है कि स्थानीय खबरो की जरूरत न हो, लेकिन यदि एक अखबार में 4से 6 पेज स्थानीय खबरो के होगे तो पाठक को क्षेत्रीय,राष्टृीय और अन्र्तराष्टृीय खबरे कम पढने को मिलेगी जो उनके साथ
अन्याय है। वैसे भी खबर वही है, जो दूर तक जाए यानि दूरदराज के क्षेत्रो तक पढी जाए। दो दशक पहले तक स्थानीय
खबरो पर आधारित समाचार पत्र बहुत कम थे। पाठक राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों पर निर्भर रहता था। वही लोगो की अखबार पढने में रूची भी कम थी। स्थानीय अखबारो ने पाठक संख्या तो बढाई है लेकिन पत्रकारिता के स्तर को कम भी किया
है। आज पीत पत्रकारिता और खरीदी गई खबरो से मिशनरी पत्रकारिता को भारी क्षति हुई है। जिसे देखकर लगता है
जैसे पत्रकारिता एक मिशन न होकर बाजार का हिस्सा बनकर गई हो।
पत्रकारिता में परिपक्व लोगो की कमी,पत्रकारिता पर हावी होते विज्ञापन,पत्रकारो के बजाए मैनेजरो के हाथ में
खेलती पत्रकारिता ने स्वयं को बहुत नुकसान पहुंचाया है। जरूरी है पत्रकारिता निष्पक्ष हो लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है
ऐसी खबर जो सच होते हुए भी राष्ट्र और समाज के लिए हानिकारक हो, तो ऐसी खबरो से परहेज करना बेहतर होता
है। पिछले दिनों देश में गोला बारूद की कमी को लेकर जो खबरे आई थी वह राष्ट्रहित में नही थी इसलिए ऐसी
खबरो से बचा जाना चाहिए था। जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का एक ब्यान कि पत्रकारिता को एक आचार संहिता की आवश्यता
है,अपने आप में सही है बस जरूरत इस बात कि है कि यह आचार संहिता स्वयं पत्रकार तय करे कि उसे मिशनरी पत्रकारिता को बचाने के लिए क्या रास्ता अपनाना चाहिए जिससे स्वायतता और पत्रकारिता दोनो बची रह सके। इसके लिए जरूरी है कि पत्रकार प्रशिक्षित हो और उसे पत्रकारिता की अच्छी समझ हो,साथ ही उसे प्रयाप्त वेतन भी मिले।ताकि वह शान के साथ पत्रकारिता कर सके और उसका भरण पोषण भी ठीक ढंग से हो।तभी पत्रकारिता अपने मानदण्डो पर खरी उतर सकती है और अपने मिशनरी स्वरूप को प्राप्त कर सकती है।अन्यथा बाजारवाद का नाग पत्रकारिता को हमेशा हमेशा के लिए निगल लेगा।वही सोशल मीडिया के प्रभावी होने से भी पत्रकारिता में विश्वसनीयता व अस्तित्व का संकट आया है।जिससे पत्रकारिता को बचाने की आवश्यकता है।
डा.श्री गोपाल नारसन एडवोकेट, (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)
पोस्ट बॉक्स 81,रुड़की, उत्तराखंड