शिव करेंगे ‘राज’ या होगी ‘कमल’ की वापसी
ज्योति पर्व पर ज्योतिरादित्य के राजनीतिक भविष्य का फैसला
मप्र में उपचुनाव बने मिनी विधानसभा चुनाव
मुस्ताअली बोहरा/भोपाल
देश के 10 राज्यों में उपचुनाव होना है लेकिन देश के दिल मध्यप्रदेश में उपचुनाव खास मायने रखते हैं, क्योंकि चुनावी नतीजे सत्ता की सेहत पर भी असर डालने वाले साबित होंगे। मप्र की 28 सीटों पर वोट पडेंगे और ये पहला मौका होगा जब सूबे में एक साथ इतनी सीटों पर उपचुनाव होंगे। इससे पहले दसवीं विधानसभा के कार्यकाल में (13-14 अक्टूबर 1996) को 10 सीटों पर उपचुनाव हुआ था।
सत्तासीन भाजपा सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चैहान को जहां ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर सरकार को मजबूती प्रदान करने का मौका है वहीं कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलनाथ के पास खोई हुई सत्ता को वापस पाने का रास्ता इस उपचुनाव से मिल सकता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान और कमलनाथ के अलावा कांग्रेस छोड भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया की साख तो दांव पर लगी ही है साथ ही मोदी सरकार में केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर, भाजपा के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और दिग्गज नेता प्रभात झा पर भी राजनीतिज्ञयों की नजरें टिकी हुई हैं। जिन सीटों पर उपचुनाव में हो रहें हैं उनमें से ज्यादातर ग्वालियर-चंबल संभाग की हैं और सिधिंया-तोमर-झा इसी क्षेत्र से आते हैं।
तोमर और झा मप्र भाजपा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। यहां ये बताना लाजमी होगा कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, गुजरात और उत्तरप्रदेश समेत 10 राज्यों की 54 विधानसभा सीटों पर 3 नवंबर को मतदान होगा। वहीं, बिहार की एक लोकसभा सीट और मणिपुर की दो विधानसभा सीटों पर 7 नवंबर को वोट डाले जाएंगे। सभी सीटों के नतीजे 10 नवंबर को आएंगे। असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल की 7 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव का ऐलान नहीं किया गया है।
यहां पडेंगे वोट
सूबे की 28 सीटों पर चुनाव होना है। इनमें ग्वालियर, डबरा, बमोरी, सुरखी, सांची, सांवेर, सुमावली, मुरैना, दिमनी, अंबाह, मेहगांव, गोहद, ग्वालियर पूर्व, भांडेर, करैरा, पोहरी, अशोकनगर, मुंगावली, अनूपपुर, हाटपिपल्या, बदनावर, सुवासरा, बड़ामलहरा, नेपानगर, मंधाता, जोरा, आगर, और ब्यावरा शामिल हैं।
चुनावी नतीजे तय करेंगे राजनीतिक रास्ता
चुनावी नतीजों के बाद सत्ता किसकी होगी। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ फिर से कांग्रेस की सरकार बनाएंगे या फिर शिवराज ही राज करेंगे? मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ के आगे का राजनीतिक रास्ता कैसा होगा ये सब चुनाव नतीजे ही बताएंगे। 15 साल का राजनीतिक वनवास खत्म कर कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई थी लेकिन महज 15 महीने बाद ही कमलनाथ सरकार गिर गई और शिवराज सिंह चैहान फिर से मुख्यमंत्री बन गए। हालांकि, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अभी हार नहीं मानी है और उपचुनाव में जीतकर वे सत्ता पलटने की जुगत में हैं।
मालूम हो कि जिन 28 सीटों पर चुनाव हो रहे हैं उनमें से 27 पर पहले कांग्रेस का कब्जा था। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ 22 विधायकों ने कांग्रेस छोड भाजपा का दामन थाम लिया था जिसकी वजह से कमलनाथ सरकार गिर गई थी। कमलनाथ और कांग्रेस 16 से 20 सीटें जिताने के लिए पसीना बहाएंगे ताकि सत्ता की हारी बाजी फिर से जीती जा सके। भाजपा को सरकार बचाने के लिए हर हाल में 9 सीटें जीतनी होंगी वहीं 14 मंत्रियों को अपनी कुर्सी बचाने के लिए मैदान फतह करना होगा।
भाजपा ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर साख मजबूत करने की कोशिश करेगी। जिन 28 सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं उनमें से 25 सीटें उन बागी विधायकों की हैं जिन्होंने मार्च में कांग्रेस से त्यागपत्र देकर कमलनाथ सरकार को बिदा कर दिया था, शेष 3 सीटें भाजपा विधायकों के निधन से रिक्त हुईं हैं। लिहाजा, बागी विधायकों का जिताने की भी चुनौती है। इतना ही नहीं उन 14 नेताओं को भी जीतना होगा जिन्हें कांग्रेस छोड भाजपा में आने के इनाम के रूप में मंत्री पद मिला है, इनमें से 9 कैबिनेट और 5 राज्यमंत्री हैं।
बसपा बिगाडेगी खेल
बहुजन समाज पार्टी भी इस उपचुनाव में कांग्रेस-भाजपा की जीत-हार में अहम रोल अदा करेगी। जिन सीटों पर चुनाव हो रहे हैं उनमें से करीब आधी सीटों पर बसपा का खासा दखल है। पर्दे के पीछे से कहा जा रहा है कि बसपा सुप्रीमों कांग्रेस से नाराज हैं। बीएसपी भले ही सीटें न जीतें लेकिन वोट जरूर कबाडेगी और इससे नुकसान कांग्रेस का ही होगा।
कांग्रेस में असंतोष ज्यादा
वैसे तो भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों को भीतरघात का खतरा है लेकिन भाजपा के बनिज्बत कांग्रेस में असंतोष के स्वर ज्यादा मुखर हैं। भाजपा में रूठे नेताओं को शिवराज और महाराज ने मना लिया। इधर, यही काम कमलनाथ कर रहे हैं। कांग्रेस छोड भाजपा में शामिल हुए नेताओं को तो भाजपा ने टिकट दे दी है लेकिन कांगे्रस उन नेताओं के भरोसे है जो पिछला चुनाव हार गए थे और पार्टी बदलकर टिकट लेना चाहते हैं। इससे कांग्रेस के पुराने जमे जकडे नेताओं में रोष है। इसका उदाहरण कांग्रेस में उम्मीदवारों के टोटे को देखकर हो जाता है। पहले ज्योतिरादित्य की बगावत और फिर एक-एक कर विधायकों के पार्टी से पलायन ने कांग्रेस को वैसे ही कमजोर कर दिया है। 15 साल बाद सत्ता में लौटी कांग्रेस को यह समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर 15 महीनों में ही बिदाई कैसे हो गई।
सत्ता के साथ मतदाता
आम तौर पर उपचुनाव में मतदाता उसी पार्टी का साथ देते हैं जिसकी सत्ता होती है, इसका प्रमाण पिछले उपचुनाव के नतीजों से मिल जाता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के बीते 3 कार्य कालों में वर्ष 2004 से 2019 तक हुए 30 सीटों के उपचुनावों में 19 सीटों भाजपा जीती। भाजपा ने अपनी 13 सीटें बचाई, तो कांग्रेस की 6 सीटें छीनी थी। वैसे उसे 6 सीटों पर पराजय का मुंह भी देखना पडा। जबकि कांग्रेस 10 सीटें ही जीत सकी। वह 4 सीटें छीनने में कामयाब रही। इतनी ज्यादा सीटों पर हो रहे उपचुनाव को देखते हुए भाजपा ने पहले ही अपनी रणनीति बना ली थी। बूथ स्तर पर जन संपर्क अभियान के साथ ही उपचुनाव के ऐलान से पहले ही शिवराज ने प्रदेशवासियों के लिए सौगातों की झडी लगा दी थी।
कुर्सी बचाने जीत जरूरी
इस उपचुनाव में उन नेताओं का जीतना निहायत जरूरी है जो शिवराज सरकार में मंत्री हैं। मालूम हो कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए 22 में से 14 नेताओं को शिवराज मंत्रिमंडल में जगह मिली है। सिंधिया समर्थक तुलसीराम सिलावट और गोविंद सिंह राजपूत को शिवराज कैबिनेट में अप्रैल में ही शामिल कर लिया गया था। इसके अलावा जिन 12 नेताओं को बाद में मंत्री बनाया गया। महेंद्र सिंह सिसोदिया, प्रभुराम चैधरी, प्रद्युम्न सिंह तोमर, इमरती देवी, बिसाहू लाल सिंह, एंदल सिंह कंसाना, राज्यवर्धन सिंह को कैबिनेट मंत्री जबकि, ओपीएस भदौरिया, गिरिराज दंडोतिया, हरदीप सिंह डंग, सुरेश धाकड़ और बृजेंद्र सिंह यादव को राज्यमंत्री बनाया गया। शिवराज के इन सभी मंत्रियों को अपनी कुर्सी को बचाए रखने के लिए उपचुनाव जीतना जरूरी है, अन्यथा पराजय के साथ ही कुर्सी भी चली जाएगी। उप चुनाव में इन बगैर विधायकी के मंत्री बने नेताओं की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। खास यह है कि 20 अक्टूबर को मंत्री गोविंद सिंह राजपूत और तुलसी सिलावट का मंत्रिपद खत्म हो जाएगा। 3 नवंबर के ये दोनों बगैर मंत्री रहे मैदान में होंगे। सिलावट और राजपूत दोनों ही विधायक नहीं हैं। संवैधानिक प्रावधानों के तहत मंत्री पद पर बने रहने के लिए छह माह के भीतर विधानसभा का सदस्य निर्वाचित होना जरूरी है। सिलावट और राजपूत 21 अप्रैल 2020 को मंत्री बनाए गए थे। 20 अक्टूबर से पहले उन्हें विधायक बनना था।
तिलक-तराजू और तलवार
भांडेर सीट से टिकट कटने से नाराज पूर्व गृहमंत्री महेंद्र बौद्ध ने कांग्रेस के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया और बसपा में शामिल हो गए। कांग्रेस ने फूलसिंह बरैया को इस सीट से प्रत्याशी बनाया है। बौद्ध ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के सामने भी नाराजगी जताई थी। बौद्ध ने कहा था कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में हर बार उनका टिकट काट दिया जाता है। भांडेर से जिन्हें टिकट दिया गया है, वह तिलक, तराजू व तलवार का नारा देकर लोगों को जातिगत रूप से बांटने का काम करते हैं। वहीं कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुई सिंधिया समर्थक रक्षा सिरोनिया मैदान में है। ऐसे में पूर्व मंत्री बौद्ध के बसपा में शामिल होने से कांग्रेस के लिए इस सीट पर मुश्किलें बढ़ गई हैं। इधर, फूलसिंह बरैया का अंदरूनी विरोध है जिसका लाभ भी भाजपा को होगा।
साॅफ्ट हिन्दुत्व की छबि
कांग्रेस साॅफ्ट हिन्दुत्व की राह पर चल रही है। मंगलवार को उपचुनाव की घोषणा हुई तो कांग्रेसियों ने इसे कमलनाथ की हनुमान भक्ति से जोड दिया। चुनाव की घोषणा से लेकर मतदान और मतगणना तक का दिन मंगलवार ही है लिहाजा कांग्रेसियों ने इसे नाथ से जोडकर भाजपा के वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश की है। सांवेर में कमलनाथ की सभा में भी राम नाम के भगवा झंडे लहरा चुके हैं। इधर भाजपाईयों का तर्क है कि भाजपा ने कभी अपनी भक्ति का दिखावा नहीं किया। कांग्रेस को हनुमान जी की याद उपचुनाव में ही क्यों आई।
कभी इधर, कभी उधर
आम विधानसभा चुनाव की तरह ही उपचुनाव में भी कई दिलचस्प मामले दिखाई पड रहे हैं। ग्वालियर की डबरा सीट पर इमरती देवी का अपने समधी सुरेश राजे से मुकाबला होगा। यह दूसरा मौका है जब इस सीट पर दो समधियों के बीच टक्कर होगी। हालांकि दोनांे ने अपनी पार्टियां बदल ली हैं। डबरा सीट पर इस बार कांग्रेस ने सुरेश राजे को प्रत्याशी बनाया है। वह इस सीट पर इस बार बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रही अपनी समधन इमरती देवी को टक्कर देंगे। दोनों समधी-समधन के बीच 2013 में भी मुकाबला हो चुका है। सुरेश राजे किसी जमाने में डबरा में बीजेपी के बड़े नेता थे। 2013 में भाजपा ने सुरेश को अपनी समधन कांग्रेस की इमरती देवी के सामने उतारा था, लेकिन इमरती ने सुरेश राजे को 32 हजार वोट से हराया था। साल 2018 में सुरेश राजे को भाजपा ने नजरअंदाज किया तो वह कांग्रेस में शामिल हो गए। इमरती देवी और उनके समधी सुरेश राजे के बीच विधानसभा चुनाव में दूसरी बार मुकाबला होगा। साल 2013 में इमरती देवी कांग्रेस से उम्मीदवार थीं, वहीं बीजेपी ने उनके समधी सुरेश राजे को मैदान में उतारा था। इस बार इमरती देवी भारतीय जनता पार्टी और सुरेश राजे कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड रहे हैं। इसी तरह ग्वालियर पूर्व सीट पर 2018 में कांग्रेस के मुन्ना लाल गोयल ने बीजेपी के सतीश सिकरवार को 17 हजार वोटों से हराया था। उप चुनाव में भी इन दोनों के बीच मुकाबला है लेकिन इस बार दोनों ने अपने-अपने दल बदल लिए हैं। मुन्ना लाल, सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में चले गए और बीजेपी ने उन्हें टिकट भी दे दिया। ठीक इसी तरह पिछली बार इस सीट पर बीजेपी के टिकट पर मैदान में उतरे सतीश सिकरवार अब कांग्रेस में चले गए हैं और कांग्रेस ने उन्हें मैदान में उतार दिया।
दगाबाजी और दलित
ज्योतिरादित्य के कांग्रेस छोडने के बाद से ही आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया था और इसका चरम उपचुनाव के प्रचार में नजर आएगा। कांग्रेस ने जहां दगाबाजी को बड़ा मुद्दा बनाया है तो वहीं भाजपा ने दलित उपेक्षा को मुद्दा बनाकर पलटवार कर दिया है। हाल ही में हुए राज्यसभा की तीन सीटों पर चुनाव हुए थे, दो पर भाजपा और एक पर कांग्रेस जीती। कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह और दलित नेता फूल सिंह बरैया को उम्मीदवार बनाया था। जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह तो चुनाव जीत गए मगर बरैया पराजित हो गए। वहीं भाजपा के दो उम्मीदवार पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और सुमेर सिंह सोलंकी जीत गए। सिंधिया और उनके साथ पार्टी छोडने वाले विधायकों पर दगाबाजी कर सरकार गिराने का मुददा कांग्रेस ने बनाया है वहीं, भाजपा राज्यसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस पर दलित उपेक्षा का आरोप लगा रही है। भाजपा नेताओं का कहना है कि दलित नेता फूल सिंह बरैया को उम्मीदवार तो बनाया मगर हराने के लिए, कांग्रेस का वास्तविक चरित्र ही यही है। आपको बता दें कि जिन सीटों पर उपचुनाव हो रहें हैं उनमें से 16 सीटें ग्वालियर चंबल इलाके से आती हैं और यह ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव वाला क्षेत्र है। यहां अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के मतदाताओं की संख्या भी अधिक है। कई विधानसभा सीटों के नतीजे तो इस वर्ग के मतदाता ही तय करते हैं।
कांग्रेस में गुटबाजी हावी
ग्वालियर-चंबल क्षेत्र को सिंधिया का मजबूत गढ़ माना जाता है। यहां से कांग्रेस को 27 सीटों पर जीत भी संभवत इसलिए मिली थी कि सिंधिया को बतौर सीएम देखा जा रहा था। जब ज्योतिरादित्य को सीएम नहीं बनाया गया और पार्टी में कथित उपेक्षा के चलते उन्होंने कांग्रेस छोड दी। इसके साथ ही उनके समर्थक 22 विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया तो नाथ सरकार गिर गई। नाथ सरकार के दौरान में ये कहा और सुना जाता रहा है कि पर्दे के पीछे से सरकार दिग्विजय सिंह चला रहे हैं। नाथ सीएम बनने से पहले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने, फिर सीएम बनने के बाद भी पीसीसी अध्यक्ष का पद उन्होंने अपने पास ही रखा। यानि, सिंधिया को अलग-थलग कर दिया गया। सिंधिया के भाजपा में चले जाने के बाद कांग्रेस पार्टी में गुटबाजी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचैरी और विंध्य के दिग्गज नेता अजय सिंह चुनाव मैदान में नजर ही नहीं आ रहे हैं। पिछले दिनों कमलनाथ के ग्वालियर में रोड शो के दौरान भी डाॅ. गोविंद सिंह की गैरमौजूदगी ने जता दिया कि कमलनाथ एकला चलो की नीति पर काम कर रहे हैं। इधर, शिवराज सिंह चैहान और ज्योतिरादित्य सिंधिया की जुगलबंदी ने भाजपाईयों में जोश भर दिया है। ग्वालियर-चंबल अंचल में ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा नरेन्द्र सिंह तोमर और प्रभात झा जैसे नेता हैं जबकि कांग्रेस में इसका टोटा है।
मंत्रियों को घेरने की रणनीति
पूर्व मुख्यमंत्री और पीसीसी अध्यक्ष कमलनाथ की रणनीति उपचुनाव में 14 मंत्रियों को घेरने की है। सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस को सभी 28 सीटों पर जीतना होगा। कमलनाथ की रणनीति सिंधिया को उन्हीं के क्षेत्र में शिकस्त देने की है। उन्होंने सिंधिया के साथ ही उनके समर्थकों को घेरने की रणनीति बनाई है जो शिवराज सरकार में मंत्री हैं। इनमें तुलसी सिलावट, गोविंद सिंह राजपूत, डाॅ. प्रभुराम चैधरी, इमरती देवी प्रमुख हैं, ये वही हैं जो कमलनाथ मंत्रिमंडल में भी मंत्री थे।
सिंधिया को करना होगा साबित
इस उपचुनाव में सबसे बडी चुनौती ज्योतिरादित्य सिंधिया के सामने हैं। उन्हें चुनावी नतीजों से खुद को साबित करना होगा। सिंधिया के सामने पहली चुनौती इलाके में अपना वर्चस्व साबित करने की है। दूसरी चुनौती अपने समर्थकों को जिताने की है। सिंधिया की जीत से ये भी पता चल जाएगा कि कांग्रेस छोडकर उन्होंने गलती नहीं की और भाजपाइयों ने उन्हें अपना लिया। कहा ये भी जा रहा है कि सिंधिया के भाजपा में चले जाने से वहां के स्थानीय नेता खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और ऐसे में वो कभी नहीं चाहेंगे कि सिंधिया समर्थक जीतें, लिहाजा सिंधिया को ये भम्र तोडना होगा। वैसे, सिंधिया घराने से राजमाता जैसी नेत्री हुईं जिन्होंने भाजपा को उचाईंयों तक पहुंचाने में अपना अहम योगदान दिया इसलिए ज्योतिरादित्य को भाजपा के तौर तरीकों से वाकिफ हैं। सिंधिया ने अपने समर्थकों को भी साफ तौर पर कह दिया है कि वे भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं से तालमेल बैठाकर चलें और इसका असर भी दिखाई देने लगा है।
किसान और भ्रष्टाचार होंगे मुददे
उपचुनाव में जहां भाजपा ने कांग्रेस के खिलाफ तबादला उद्योग चलाने, भ्रष्टाचार को मुददा बनाया है तो वहीं कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य की गददारी को हथियार बनाया है। शिवराज और महाराज दोनांे ही कांग्रेस के खिलाफ मुखर हो गए हैं। आगर मालवा की सभा में दोनों ने एक साथ मंच साझा कर भाजपा कार्यकर्ताओं को भी एकजुटता का संदेश दिया। सिंधिया ने तो आईफा अवॉर्ड समारोह को लेकर कमलनाथ की आलोचना की। शिवराज ने ज्योतिरादित्य की तारीफ करते हुए यहां तक कह दिया कि कांग्रेस ने सिंधिया की वजह से इतनी बडी जीत हासिल की थी लेकिन उन्हें सीएम न बनाकर कमलनाथ को बागडोर दे दी गई। नाथ के शासन काल में प्रदेश में तरक्की की बजाए तबादला उद्योग चालू हो गया। शिवराज ने कमलनाथ की सरकार पर फसल बीमा योजना के पैसे डकारने का भी आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस सरकार ने फसल बीमा के 2200 करोड़ रुपए प्रीमियम जमा नहीं किया। उनके मुख्यमंत्री बनते ही एक घंटे के अंदर 2200 करोड़ रुपए जमा कर 15 लाख किसानों के खातों में 3000 करोड़ रुपए जमा किए।
किस के जलंगे दिल और किस के दिए
बहरहाल, ऐन दीपावली के पहले उपचुनाव के नतीजे आ जाएंगे। उपचुनाव के नतीजे आने के बाद राज्य विधानसभा में 230 सदस्य हो जाएंगे। ऐसे में बहुमत के लिए 116 सीटों की जरूरत पड़ेगी। भाजपा के पास इस समय 107, कांग्रेस के पास 88, बसपा, सपा, निर्दलीय क्रमशः 2, 1, 4 विधायक हैं। ये देखना दिलचस्प होगा कि चुनावी नतीजों के बाद शिवराज सरकार वर्तमान की बजाए और ज्यादा स्थिर होगी या फिर कमलनाथ वही खेल खलेंगे जो इसी साल मार्च में भाजपा ने खेला था। ज्योति पर्व दीपावली ज्योतिरादित्य के लिए कितनी खुशियां लेकर आएगा, नतीजों के बाद मोदी सरकार में जगह मिलेगी ये भी चुनावी नतीजे बताएंगे। किस खेमें में दिए जलेंगे और किस के दिल, ये देखने के लिए 10 नवंबर तक इतंजार करना होगा।