अकबर के राज में अयोध्या थी राजधानी
- तीर्थंकरों ने भी लिया है यहां जन्म
मुस्ताअली बोहरा/भोपाल
पांच दिनी दीपमालिका का पर्व आते ही मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम का जीवन प्रसंग जहन में आ जाता है। इसके साथ ही रौशनी से जगमगाती समूची अयोध्या मानों नजरों के सामने घूमने लगती है। ये बात और है कि दीपावली का ताल्लुक सनातन धर्मावलम्बियों के अलावा जैन, बौद्ध और सिख अनुनायियों से भी है। इसी तरह अयोध्या का इतिहास भी खासा गहरा है। वो अयोध्या जहां न सिर्फ भगवान श्रीराम का जन्म हुआ बल्कि तीर्थंकर आदिनाथ के चार अन्य तीर्थंकरों ने भी यहीं जन्म लिया, वो अयोध्या जो बुद्ध देव की तपस्या स्थली रही, वो अयोध्या जिसे बादशाह अकबर ने अवध सूबे की राजधानी बनाया। लेकिन विडम्बना है कि भगवान श्री राम और अयोध्या दोनों ही सिर्फ शौर्य और शक्ति प्रदर्शन के प्रतीक तक सीमित होकर रह गए हैं।
ब्रह्माजी के मानस पुत्र मनु से अयोध्या और प्रतिष्ठानपुर के इतिहास का उद्गम जुडा है ऐसा माना जाता है। प्रतिष्ठानपुर और यहां के चंद्रवंशी शासकों की स्थापना मनु के पुत्र ऐल से जुड़ी है, जिसे शिव के श्राप ने इला बना दिया था। उसी प्रकार अयोध्या और उसका सूर्यवंश मनु के पुत्र इक्ष्वाकु से शुरू हुआ था। ग्रह मंजरी और अन्य प्राचीन ग्रंथों के आधार पर इनकी स्थापना का काल ई.पू. 2200 के आसपास माना जाता है। इस वंश में राजा दशरथ 63वें शासक रहे हैं। इसी तरह जैन परंपरा के अनुसार भी 24 तीर्थंकरों में से 22 इक्ष्वाकु वंश के थे। इन 24 तीर्थंकरों में से तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव जी) के साथ चार अन्य तीर्थंकरों का जन्मस्थान भी अयोध्या ही है। बौद्ध मान्यताओं के अनुसार बुद्ध देव ने अयोध्या अथवा साकेत में 16 वर्षों तक निवास किया था। एक तरह से ये जैन और बौद्धों का भी पवित्र धार्मिक स्थान था। विख्यात संत रामानंद जी का जन्म भले ही प्रयाग क्षेत्र में हुआ हो लेकिन रामानंदी संप्रदाय का मुख्य केंद्र अयोध्या ही रहा।
वाल्मीकि कृत रामायण के बालकाण्ड में अयोध्या के 12 योजन-लम्बी और 3 योजन चैड़ा होने का उल्लेख है। सातवीं सदी के चीनी खोजी यात्री ह्वेन सांग के मुताबिक इसकी परिधि 16ली थी, एक चीनी ली 1.6 मील के बराबर मानी जाती थी। आईन-ए-अकबरी में भी इस नगर का जिक्र है, इसकी लंबाई 148 कोस तथा चैड़ाई 32 कोस उल्लिखित है। कोशल, कपिलवस्तु, वैशाली और मिथिला आदि में अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश के शासकों ने ही राज्य कायम किया था। त्रेता युग से लेकर द्वापर काल और उसके बाद तक अयोध्या के सूर्यवंशी इक्ष्वाकुओं का जिक्र ग्रंथों में मिलता है। बृहद्रथ को इसी वंश का माना जाता है जिसे महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु ने पराजित किया था। प्राचीन गंथों के अनुसार लव ने श्रावस्ती बसाई। फिर यह नगर मगध के मौर्यों से लेकर गुप्तों और कन्नौज के शासकों के अधीन रहा। अंत में यहां महमूद गजनी के भांजे सैयद सालार ने तुर्क शासन की स्थापना की।
जब शकों का राज्य स्थापित हुआ तो अयोध्या शर्कियों के अधीन हो गया। 14 वीं सदी में महमूद शाह शक शासक के रूप में थे। 15 वीं सदी में बाबर ने मुगल राज्य की स्थापना की। बादशाह अकबर के राज में अवध क्षेत्र का महत्व काफी बढ गया, ये इलाका व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। चूंकि, गंगा के उत्तरी भाग को पूर्वी क्षेत्रों और दिल्ली-आगरा को सुदूर बंगाल से जोड़ने वाला रास्ता यहीं से होकर गुजरता था लिहाजा अकबर ने जब अपने साम्राज्य को 12 सूबों में विभक्त किया, तब उसने अवध का सूबा बनाया था और अयोध्या ही उसकी राजधानी थी।
औरंगजेब की मौत के बाद जब कई छोटे छोटे राज्य उभरने लगे, तब अवध भी स्वतंत्र राज्य बन गया। 17 वीं सदी में मुगल बादशाह मुहम्मद शाह ने इस क्षेत्र को नियंत्रित करने के लिए अवध का सूबा अपने शिया दीवान-वजीर सआदत खां के हवाले कर दिया था। अवध सूबे के दीवान दयाशंकर थे जो यहाँ का प्रबंधन संभालते थे। इसके बाद उसका दामाद मंसूर अली सफदरजंग अवध का शासक बना। इसी दौरान उसका प्रांतीय दीवान इटावा का नवल राय था।
–नवाब ने दिया था हिन्दुओं के हक में फैसला
इतिहासकारों के मुताबिक इसी मंसूर अली सफदरजंग के समय में अयोध्या के निवासियों को धार्मिक स्वतंत्रता मिली। इसके बाद उसका पुत्र शुजा-उद्दौलाह अवध का नवाब-वजीर हुआ और उसने अयोध्या से 3 मील पश्चिम में फैजाबाद नगर बसाया। शुजा-उद्दौलाह की मौत के बाद फैजाबाद उनकी विधवा बहू बेगम की जागीर के रूप में रही और उनके पुत्र आसफ-उद्दौल्लाह ने नया नगर लखनऊ बसाया। आसफ ने लखनउ को अपनी राजधानी बनाया। नवाब वजीर वाजिद अली शाह अवध के आखरी नवाब-वजीर थे। उसके बाद उनकी बेगम हजरत महल और उनका पुत्र बिलकिस बद्र ब्रितानिया हुकमरानों लड़ते रहे लेकिन अवध को उनसे मुक्त नहीं करा पाए। यहां ये बताना मौजू होगा कि वाजिद अली शाह के समय हनुमान गढी में सांप्रदायिक विवाद उभरा था और नवाब वाजिद अली शाह ने अंततः हिन्दुओं के हक में फैसला दिया था। इस निष्पक्ष फैसले पर तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने मुबारकबाद भी प्रेषित की थी।
बहरहाल, आज भी अयोध्या की एक ही गली में मस्जिद की अजान सुनाई देती है तो दूसरे घर में राम कथा होते रहती है। यहां न कोई भेदभाव है और न मजहबों के बीच कोई दूरी। टेढ़ी बाजार से आगे अयोध्या कोतवाली के बगल वाली गली में धार्मिक फोटो हाउस है। यहां राम दरबार समेत सभी भगवान की तस्वीरें मिलती हैं। ये दुकान मुस्लिम परिवार की है जिसे उनका परिवार पिछले करीब सवा दशक से चला रहा है।
- जय-जय सियाराम क्यों नहीं
मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री राम को आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श भाई के रूप में जाना जाता है। श्री राम तो वो थे जिन्होंने पिता के आदेश का पालन करते हुए वनवास भोगा, श्री राम वो थे जिन्होंने रावण का वध कर असुरों से लोगों की रक्षा की, जिन्होंने शबरी के झूठे बेर खाए, जिन्होंने अहिल्या का उदधार किया। ऐसे ही कई कारणों से जय सियाराम का संबोधन खासों आम की जुबान पर था। आज भी कई कस्बों में लोग उसी तरह एक दूसरे से जय सियाराम संबोधित करते हैं जैसे कई लोग नमस्ते करते हैं। जय सियाराम का संबोधन मन को सुकुन देने वाला होता है लेकिन बदलते वक्त और माहौल के साथ यही संबोधन जय-जय सियाराम से जय-जय श्री राम हो गया। जय-जय श्री राम भी ऐसा जो ऐसे शौर्य और शक्ति प्रदर्शन का प्रतीक हो गया जो दूसरे को कमतर या कमजोर होने का एहसास कराए। हर्ज तो जय-जय श्री राम के उदघोष से भी नहीं है लेकिन मर्यादा ऐसी हो जैसी श्री राम में थी।
लेखक- मुस्ताअली बोहरा
भोपाल, मप्र