चूड़ियां एक पारंपरिक गहना हैं।
गुरुदेव सिंह | फिरोजाबाद
चूड़ियां एक पारंपरिक गहना हैं। चूड़ियों की खनक से घर में न सिर्फ खुशहाली आती है बल्कि वास्तुदोष भी दूर होता है। वहीं हिन्दू धर्म में चूड़ियों को सुहाग का प्रतीक माना गया है।
भारत सहित दक्षिण एशिया में सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों की स्त्रियां कांच, प्लास्टिक, पीतल, लाख, हाथी दांत आदि विविध प्रकार की चूड़ियां अपनी कलाई में पहनती हैं। विविध रंग रूप और चमक दमक के कारण भारतीय सभ्यता एवं समाज में कांच की चूड़ियों का महत्वपूर्ण स्थान है।
कई प्रक्रियाओं व हाथों से गुज़रने के बाद कांच की रंग-बिरंगी फैंसी चूड़ियां फिरोज़ाबाद के कारखानों में तैयार की जाती हैं। यहां के चूड़ी उद्योग से ज़्यादातर घरेलू महिलाएं व बच्चे भी जुड़े हुए हैं जो अपने घर से ही जुड़ाई, झलाई, पैकिंग आदि कार्य करते हुए जीवनोपार्जन कर रहे हैं।
आकर्षक व कलात्मक कांच की चूड़ियों व आइटमों के लिए विश्व विख्यात फिरोज़ाबाद को सुहाग नगरी के नाम से भी जाना जाता है जिसका लगभग 110 साल पुराना इतिहास है।
मुगलों से भी पुराना है कांच की चूड़ियों का इतिहास
फिरोज़ाबाद के तत्कालीन राज्य सभा सदस्य पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी की प्रेरणा से प्रेरित होकर साहित्यरत्न गणेश शर्मा (प्राणेश) द्वारा लिखी गई एवं वर्ष 1962 में प्रकाशित पुस्तक ‘फिरोज़ाबाद परिचय’ के अनुसार कांच बनाने की शुरुआत चन्द्रवाड़ के राजाओं एवं आगरा के मुगल शासकों की राजधानी बनने से लगभग 250 से 300 वर्ष पूर्व मानी गई है।
गांव उरमुरा और रपड़ी में आसानी से रेता और सींग उपलब्ध हो जाता था इसलिए फिरोज़ाबाद के लोग अपने मकान के नज़दीक ही छोटी भट्टी तैयार कर बहुत ही भद्दी तथा रंग विहीन कांच की चूड़ियां बनाया करते थे। चूड़ियों की अधिक मांग और खपत के कारण कांच का उत्पादन ज़्यादा होता था।
समय बीतता गया लेकिन कार्य करने की पद्धति में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ, तब कुछ लोगों ने ऑस्ट्रेलिया, जापान आदि से रंग बिरंगी चमक वाले विदेशी कांच के टुकड़ों को मंगाना शुरू कर दिया। जो की वज़न में पौंड-आधा पौंड के होते थे, जिन्हें यहां के लोग निमकदानी और अंग्रेजी में ब्रोकिन ग्लास कहते थे फिर कारीगर इन्हीं से चूड़ियां बनाने लगे।
यह माल बम्बई और कलकत्ता से होकर आता था जिसकी वज़ह से न सिर्फ महंगा पड़ता था बल्कि लाने में भी बहुत कठिनाईयों होती थीं, इसलिए कुछ लोगों ने देहरादून की कांच फैक्ट्रियों का अध्ययन किया और वहां से कांच मंगवाया लेकिन कालांतर में वह कारखाना भी बंद हो गया और कारीगर इधर उधर चले गए।
पहली फैक्ट्री द ‘इंडियन ग्लास वर्क’
सेठ नन्दराम के अथक प्रयासों के चलते जर्मनी के एक विशेषज्ञ देहरादून में बंद हो चुकी कांच फैक्ट्री से यहां आए और सन 1910 ई. में फिरोज़ाबाद का पहला कारखाना ‘द इंडियन ग्लास वर्क्स’ स्थापित किया गया।
इस कारखाना भट्टी में कोयले की गैस से सिर्फ कांच ही पकाया और ब्लाक ग्लास बनाया जाता था। ‘द इंडियन ग्लास वर्क्स’ कारखाने की स्थापना के साथ ही फिरोज़ाबाद में कांच बनाने की नींव पड़ी साथ ही यहां से अन्य स्थानों पर भी कांच जाने लगा। इस समय तक बनने वाली चूड़ियां सिर्फ लाल, पीले, नीले रंग की भद्दी, मोटी और भारी हुआ करती थी।
आधुनिक ढंग के कारखाने की सर्वप्रथम नींव हाज़ी रुस्तम उस्ताद ने डाली और हाज़ी कल्लू उस्ताद, कादिर बक्स और उस्ताद भूरे खां के परिश्रम, उत्साह, लग्न एवं साहस के कारण विदेशों में बनने वाली चूड़ियों के समान ही फिरोज़ाबाद में भी सुंदर चूड़ियों का निर्माण होने लगा।
अशिक्षित होने के बावजूद भी यह चारों लोग कैमिकल के काम व रंग बनाने में माहिर थे। इन्हीं लोगों ने लकड़ी के बेलन का प्रयोग कर चूड़ियां बनाना शुरू किया। मेहनत रंग लाई और चूड़ी कारीगरों के परिश्रम, कुशलता एवं सरकार की व्यापार सुरक्षा नीति के चलते भारतवर्ष के सभी छोटे व बड़े नगरों में कांच की चूड़ियों की खूब खपत होने लगी।
आधुनिकता की भेंट चढ़ते कांच कुटीर-उद्योग
सन 1924 ई. में की गई जनपद आगरा की औद्योगिक जांच रिपोर्ट के अनुसार फिरोज़ाबाद में 2,445 पुरुष, 427 महिलाओं सहित 3047 युवा कार्यरत थे। यहां का कांच उद्योग लगभग 12,000 लोगों को रोज़गार देता था। सन 1923 ई. में चूड़ियों का कुल निर्यात 59,350 मन, ब्लॉक ग्लास 25,654 मन और जर्मनी, आस्ट्रेलिया व जापान से विदेशी चूड़ियों का आयात 10,878 मन हुआ करता था।
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि आधुनिक तकनीक के कारखानों के खुल जाने से फिरोज़ाबाद में कुटीर उद्योग-धंधे की आधार पद्धति नष्ट हो गई है। यहां ब्लाक ग्लास के 7 कारखाने हैं, जिनमें से 6 चालू दशा में है। ये कारखाने 217 व्यक्तियों को रोजगार देते हैं और इनमें 11 भट्ठियां हैं। यहां कुशल कारीगरों को 80 रुपये और अकुशल कारीगरों को 15 से 28 रुपये
सर्वप्रथम रेता, सिलिका सेंड, सोडा एश और कैल्साइट का मिश्रण तैयार कर फर्नेश भट्टियों के पॉट में भरने के बाद यदि चूड़ीयों को लाल रंग का बनाना है तो कैडियम सल्फाइड व सिलेनियम,
नीला बनाना है तो कोबाल्ट, हरा व फिरोज़ी बनाना है तो कॉपर ऑक्साइड व कसीस, पीला बनाना है तो कैडियम, काला बनाना है तो मैग्नीश ऑक्साइड और रेशम की चूड़ियों के लिए पोटेशियम सायनाइट आदि केमिकल इसी घोल में मिला दिया जाता है।
जब भट्टी का तापमान 1300 से 1500 डिग्री तक पहुंच जाता है और घोल पिघलकर कांच बन जाता है तब, चूड़ी बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है। चूड़ी मज़दूर लोहे की रॉड में भट्टे के होल से पिघला हुआ कांच निकालता है और वहां से सिकाई भट्टी (अड्डे) पर आता है। यहां कांच के टुकड़े को आकृति और आकार देकर गर्म कांच को ठंडा किया जाता है।
आसान नहीं चूड़ियों को आकर्षक बनाना
श्रमिक फिर से उसी कांच पर भट्टी से नया कांच लेता है। कांच पर कांच चढ़ाने की यह प्रक्रिया तीन से चार बार तक दौहराई जाती है। इसके बाद यह बेलन पर मेकिंग के लिए जाता है जहां बेलन चलाने वाला कारीगर हाथों से रॉड का बैलेंस इस तरह का बनाता है कि बेलन पर चलने वाले कांच की डोर एक सी रहे। बेलन पर चूड़ी को आकार मिलता है और वह एक गोल लंबे लच्छे के रूप में तैयार हो जाती है।
इस गोल लंबे लच्छे को बेलन से उठाकर दूसरे ठिकाने पर रख दिया जाता है, जहां पर श्रमिक इसे हीरे के टुकड़े से काटकर चूड़ियों को अलग-अलग करने केे बाद लगभग 300 चूड़ियों को एक सुतली में बांधकर तोड़ा बनाते हैं। कारखानों में एक दर्ज़न में 24 चूड़ियों का हिसाब होता है।
इसके बाद यह तोड़े कारखाने से हाथ ठेलों के ज़रिए सदाई व जुड़ाई के लिए ठेकेदार के यहां जाते हैं। चूड़ी बिना किसी डिज़ाइन की बनती है और रंगीन होती है। चूड़ियों को संवारने का काम गली -गली, छोटे-छोटे घरों में रहने वाले कारीगर करते हैं जो तोड़े से निकालकर एक एक चूड़ी को लैम्प और गैस की लौ से इस तरह जोड़ते हैं कि देखने वाले को आसानी से पता न चले,इसके साथ ही चूड़ियों की छटाई हो जाती है और नया तोड़ा बनकर कारखाने में वापस आ जाता है।
रोज़गार और राजस्व देता चूड़ी बाज़ार
यहां से छोटे और बड़े दुकानदार माल खरीदकर ले जाते हैं। जो, चूड़ी पर गोल्ड, सिल्वर पॉलिश या फिर आर्टिफिशियल कांच के नग लगाकर लुभावना बनाते हैं। इसके बाद चूड़ियों को आकर्षक पैकिंग कर व्यापारी और ग्राहकों को सप्लाई किया जाता है।
नगर की घनी आबादी के मध्य प्राचीन मंदिर श्री राधा कृष्ण जी महाराज के पास इमामबाड़ा चौराहा, छोटा चौराहा, मौहल्ला अट्टावाला, डाकियान स्ट्रीट, गली बौहरान, हुंडावाला बाग, बड़ी छपैटी, शेख लतीफ, चोकीगेट व अन्य स्थान फैंसी चूड़ियों के आकर्षक केंद्र हैं।
यहां की अर्थव्यवस्था कांच व चूड़ी उद्योग पर टिकी है जिससे हर वर्ष सरकार को करोड़ों रुपये का राजस्व और बेरोज़गारों को रोज़गार प्राप्त होता है।
भारतीय संस्कृति, परम्परा और रीति रिवाज़ों के अनुसार मकर संक्रांति, पोंगल, हरियाली तीज, नवरात्रि, छट पूजा, करवा चौथ, दीपावली व अन्य त्योहारों पर कांच की चूड़ियों का महत्व रहता है। महाराष्ट्र, गुज़रात, कर्नाटक, राजस्थान, तमिलनाडु, बिहार, बांग्लादेश, आंध्रप्रदेश ही नहीं बल्कि नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान सहित कई देशों में रंग बिरंगी आकर्षक डिज़ाइनों वाली चूड़ियों की विशेष डिमांड रहती है।
‘कांची’ एक सच या परिकल्पना
कांच उत्पादों के लिए विश्व विख्यात सुहाग नगरी का ख्याल आते ही चूड़ियों की खनक वातावरण में गूंजने लगती है। कांच उद्योग और चूड़ियां सिर्फ फिरोज़ाबाद की शान ही नहीं बल्कि पहचान भी है जिसमें महिलाओं की अहम भूमिका होती है।
कुछ ऐसी ही एक नई सोच के साथ नारी सशक्तिकरण को ध्यान में रखते हुए निर्वाचन 2019 में मतदाताओं को जागरूक बनाने के लिए कांच की इस नगरी को एक नई पहचान देते हुए तत्कालीन जिलाधिकारी आईएएस नेहा शर्मा एवं सेल्वा कुमारी जे. और मुख्य विकास अधिकारी नेहा जैन ने “कांची” शब्द की परिकल्पना की।
जिसे वरिष्ठ समाजसेविका कल्पना राजौरिया के नेतृत्व में 2 अप्रैल 2019 को आयोजित एक दिवसीय कांची प्रतियोगिता में जनपद फिरोज़ाबाद की तहसील जसराना के अंतर्गत ग्राम उतरारा के उच्च प्राथमिक विद्यालय की सहायक अध्यापिका शोभा गुप्ता ने “कांची” के नये रूप को साकार किया।
जिसे वर्तमान में जिला प्रशासन के साथ-साथ सामाजिक संस्था जन आधार कल्याण समिति उत्तर प्रदेश भी कांची के इस नये रुप और प्रयोग को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य कर रही है