मोदी का मास्टर स्ट्रोक चलेगा क्या…?
किसान आंदोलन : ना तुम जीते……… ना हम हारे
- मुस्ताअली बोहरा, अधिवक्ता एवं लेखक
आम बजट पेश करने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि इस बजट के दिल में गांव और किसान है। जाहिर सी बात है कि किसान आंदोलन के इतना लंबा खिंच जाने की उम्मीद पीएम सहित किसी को नहीं थी। ये माना जा रहा था कि या तो सरकार कोई ना कोई रास्ता निकाल लेगी या फिर किसानों का सब्र टूट जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। अलबत्ता गणतंत्र दिवस पर किसानों ने परेड निकाल कर इतिहास में एक नई इबारत जरूर लिख दी। गणतंत्र दिवस के दिन किसान परेड के दौरान हुई हिंसा ने भी कई सवालों को जन्म दे दिया। किसान, तीनों कृषि कानून को वापस लेने की अपनी मांग पर अडिग हैं तो दूसरी ओर सरकार बातचीत के जरिए संशोधन करने और इस समस्या का हल निकालने की बात बार बार कह रही है।
कृषि मंत्री और विभागीय आला अफसरों ने इस बात की पूरी कोशिश की कि नए कानूनों के लाभ बताकर और जरूरत के हिसाब से आश्वासन देकर आंदोलन खत्म करवा लिया जाए लेकिन ऐसा हो नहीं सका। किसान नेताओं की काबलियत इस बात से भी जाहिर हो गई कि वो कानून अथवा सरकारी भाषा की लाग लपेट में नहीं आए। इतने लंबे चले किसान आंदोलन से सभी को ये भी पता चल गया कि ये आंदोलन किसी राजनीतिक पार्टी के बहकावे में नहीं किया गया है। किसान अपनी परेशानी और आशंकाओं के चलते ही सड़क पर हैं। अब, खुद प्रधानमंत्री मोदी भी आंदोलन के बढ़ते दायरे से चितिंत नजर आ रहे हैं और इससे ये माना जा सकता है कि मोदी के हस्तक्षेप के बाद ही गतिरोध खत्म हो सकेगा। जो तीन नए कृषि कानून हैं उनमें कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन व सरलीकरण) कानून-2020, कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून-2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून-2020 शामिल है।
पिछले करीब ढाई महीने से देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर पंजाब, हरियाणा और कुछ दूसरे राज्य के किसानों का प्रदर्शन जारी है. ये किसान अध्यादेश के जरिए बनाए गए तीनों नए कृषि कानून को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। किसानों के आव्हान पर आठ दिसंबर को भारत बंद आहूत किया गया था जिसे करीब दो दर्जन विपक्षी राजनीतिक पार्टियों और दिगर किसान संगठनों का भी समर्थन मिला था। किसान आंदोलन के दौरान केंद्र सरकार और किसान नेताओं के बीच एक दर्जन बार बैठक और बातचीत हुई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
- आखिर प्रदर्शन क्यों
इन कानूनों के जरिए मौजूदा एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी) की मंडियों के साथ ही निजी कंपनियों को भी किसानों के साथ अनुबंधीय खेती, खाद्यान्नों की खरीद और भंडारन के अलावा बिक्री करने का हक होगा। आंदोलित किसानों को आशंका है कि सरकार किसानों से गेहूं और धान जैसी फसलों की खरीद को कम करते हुए बंद कर सकती है, ऐसा हुआ तो किसान पूरी तरह बाजार या निजी कंपनियों के भरोसे हो जाएंगें। देखा जाए तो तीनों कानून में एपीएमसी मंडियों को बंद करने या एमएसपी सिस्टम खत्म करने की बात का जिक्र नहीं है लेकिन किसानों को आशंका है कि निजी कंपनियों के आने से आखिर में वो उन्हीं के भरोसे हो जाएंगे।
किसानों को लगता है कि निजी कंपनियों के आने से सरकार अनाज की खरीदी कम कर देगी। इन्हीं आशंकाओं के चलते पहले पंजाब के किसानों से विरोध शुरू किया और फिर हरियाणा के किसान इसमें शामिल हो गए। धीरे धीरे दूसरे राज्यों के किसान भी इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हो गए और फिर विपक्षी राजनीतिक दलों ने भी इस विरोध प्रदर्शन का समर्थन कर दिया।
नए कानूनों के तहत किसान अपने कृषि उत्पादों की खरीद बिक्री एपीएमसी मंडी से अलग खुले बाजार में भी कर सकते हैं लेकिन किसानों का कहना है कि मंडियों से बाहर बाजार दर पर अपनी उपज बेचने का शुरू में तो फायदा हो सकता है लेकिन बाद में एमएसपी की तरह तय दर पर भुगतान मिलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं होगी, हो सकता है बाद में न्यूनतम समर्थन मूल्य भी ना मिल पाए। नए कानून में अनुबंधित खेती को मंजूरी दी गई है, तात्पर्य ये है कि थोक विक्रेताओं, प्रोसेसिंग इंडस्ट्रीज और प्राइवेट कंपनी से किसान सीधे एग्रीमेंट कर अनाज का उत्पादन कर सकते हैं। किसान अपनी उपज का दाम खुद तय कर सकते हैं। लेकिन किसानों का कहना है कि निजी कंपनियां उपज की गुणवत्ता के आधार पर मोलभाव कर सकती हैं या फिर खरीदी रोक सकती हैं। नए कानूनों के जरिए आवश्यक वस्तुओं की सूची से दलहन, तिलहन, प्याज और आलू को हटा दिया गया है। सरकार का कहना है कि इससे इन उत्पादों के भंडारण पर कोई रोक नहीं होगी, इससे निजी निवेश आएगा और कीमतें स्थिर रहेंगी। इस मामले में किसानों का तर्क है कि निजी कपंनियां इन उपज का व्यापक रूप से भंडारण करने लगेंगी और कीमतें बढाने के लिए इन उपज की कृत्रिम कमी पैदा की जाएगी।
- तीनों कानून वापस लेने पर अडे़ हैं किसान
किसान तीनों कानूनों को पूरी तरह वापस लेने की मांग पर अडे़ हुए हैं। सरकार का कहना है कि बातचीत के जरिए इन कानूनों में संशोधन किया जा सकता है लेकिन किसान चाहते हैं कि सरकार इन तीनों कानूनों को निरस्त करे। किसान संगठन कृषि उत्पादों की एमएसपी से कम मूल्य पर खरीद को दंडनीय अपराध के दायरे में लाने और धान-गेहूं की फसल की सरकारी खरीद को सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं। दूसरी ओर केन्द्र सरकार ने गतिरोध खत्म करने के लिए किसान नेताओं, संगठन के प्रतिनिधियां से कई दौर की बात की है और एमएसपी जारी रखने, एपीएमसी की व्यवस्था के लिए तैयार है। सरकार इस बात के लिए भी तैयार है कि किसान और निजी कंपनियों में किसी विवाद का फैसला सब डिविजनल मजिस्ट्रेट के जरिए ही नहीं होगा, बल्कि किसानों के सामने अदालत जाने का विकल्प भी होगा।
- ये भी जानें
विभिन्न राज्यों में स्थानीय नियमों के तहत सरकारी एजेंसी अथवा आधिकारिक आढ़तियों के जरिए किसानों से उपज की खरीद बिक्री के लिए एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी यानि एपीएमसी का गठन किया गया है। महाराष्ट्र में इस तरह की करीब तीन सौ कमेटियां मौजूद हैं। बिहार में तो सन 2006 में ऐसी कमेटियों को भंग कर दिया गया था।
सरकार का तर्क है कि अगर एपीएमसी के साथ ही निजी कंपनियां उपज खरीदी बिक्री करती हैं तो किसानों को साथ ही उपभोक्ताओं को भी फायदा होगा। जबकि किसानों का कहना है कि पहले तो निजी कंपनियां किसानों को अच्छी कीमतें देंगी जिससे एपीएमएसी मंडियां बंद हो जाएंगी और इसके बाद कंपनियां अपनी मनमानी करेंगी। एपीएमसी मंडियां बंद हो जाएंगी तो न्यूनतम समर्थन मूल्य भी खत्म हो जाएगा।
- एमएसपी की जरूरत क्यों
दरअसल, किसानों को उनकी उपज का न्यनूतम मूल्य मिल सकें इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था लागू की गई थी। यदि बाजार में कीमतें गिरने लगती हैं तो भी सरकार उपज एमएसपी पर खरीदती है। इससे किसानों को घाटा नहीं होगा। यहां ये बताना लाजमी होगा कि कृषि मंत्रालय कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के आंकड़ों के हिसाब से एमएसपी निर्धारित करता है। वर्तमान में करीब दो दर्जन फसलों की खरीद एमएसपी के हिसाब से होती है। वैसे, किसानों को कहना है कि गेहूं और धान का भंडारण बड़े पैमाने पर किया जाता है और इसलिए सरकार इन दोनों उपज को एमएसपी पर खरीदती है बाकी फसलों को तो किसान एमएसपी पर बेच ही नहीं पाते। यही वजह है कि किसान चाहते हैं कि एमएसपी की गारंटी हो अन्यथा निजी कंपनियां किसानों को कीमतें कम करने के लिए मजबूर सकती हैं। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कह चुके हैं कि एमएसपी को समाप्त नहीं किया जाएगा और सरकारी खरीद भी जारी रहेगी. लेकिन सरकार यह भरोसा लिखित में देने को तैयार नहीं है।
- ये है माजरा
नए कानूनों को लेकर पंजाब और हरियाणा के किसान बड़ी तादाद में प्रदर्शन कर रहे हैं, ऐसे में ये सवाल उठना भी लाजमी है कि दिगर राज्यों के किसान इतने आंदोलित क्यों नहीं है। असल में, पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में कुल उपज का 90 फीसदी हिस्सा एपीएसी की मंडियों में बेचा जाता है। करीब छ दशक पहले देश में अनाज संकट के दौरान पंजाब, हरियाणा और यूपी के किसानों को अनुदान की दरों पर बीज, खाद, खेती के उपकरणों पर कर्ज आदि दिया गया था। इसके बाद इन राज्यों से गेहूं और धान की खरीदी भी सरकार ने की थी। जब केन्द्र सरकार ने अध्यादेश के जरिए इन विधेयकों को कानून बनाया तो इसका विरोध पंजाब और फिर हरियाणा से शुरू हो गया। जब किसानों की मांग पर सुनवाई नहीं हुई तो यहां के किसान दिल्ली की सीमा पर पहुंच गए। धीरे धीरे प्रदर्शन व्यापक हो गया और दिगर राज्यों के किसान भी इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हो गए। असम, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, ओडिशा आदि में भी किसानों ने रैली निकालकर नए कानूनों के विरोध में अपना आक्रोश जाहिर किया। तीन दर्जन से ज्यादा किसान संगठन और इससे जुड़े हजारों किसान दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे हैं। अपनी मांगों को लेकर किसानों ने भारत बंद भी आहूत किया। इस बंद को दो दर्जन से ज्यादा राजनीतिक दलों ने समर्थन दिया था। इतना ही नहीं गणतंत्र दिवस पर भी किसानों ने देश की राजधानी दिल्ली में टेªक्टर परेड निकालकर प्रदर्शन किया।
कुल मिलाकर, नए तीनों कानूनों को लेकर हर किसी के अपने दावे प्रतिदावे हैं। किसानों के प्रदर्शन पर राजनीतिक दलों, बॉलीवुड और रीजनल सिनेमा के स्टार, खेल की दुनिया के सितारों ने भी बयान जारी किए हैं। इस आंदोलन को किसी ने आतंकवाद से जोड़ा तो किसी ने खालिस्तानी समर्थकों से। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण सम्मान लौटाने की घोषणा की है वहीं पूर्व केंद्रीय मंत्री एसएस ढींढसा ने पद्म श्री लौटाने का एलान किया है। ओलंपिक पदक विजेता बॉक्सर विजेंदर सिंह ने कहा कि अगर किसानों की बात नहीं मानी गई तो वे अपना खेल रत्न पुरस्कार लौटा देंगे। पंजाब से शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज कनाडा और अमेरिका तक में सुनाई दे रही है। इन देशों के डेमोक्रेटस ने भी किसान आंदोलन को लेकर बयान दिए। कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने किसानों के समर्थन में बयान दिया है। ब्रिटेन में कई सांसदों ने किसानों के प्रदर्शन को लेकर चिंताएं व्यक्त की हैं। मशहूर पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग, पाप स्टार रिहाना से कई सेलिब्रिटिज ने बयान जारी किए हैं। बहरहाल, तीन नए कृषि कानूनों को लेकर सड़क से सदन तक हंगामा मचा हुआ है। बजट सत्र के दौरान दोनों सदनों में भी खूब हंगामा हुआ। अभी तक के सारे घटनाक्रम के बाद यही कहा जा सकता है कि भले ही केन्द्र सरकार ने ये नए कानून बना दिए हो लेकिन जिस तरह से हजारों किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उससे सरकार और किसानों के लिए फिलहाल तो यही तस्वीर है ना तुम जीते ना हम हारे....।।