क्या सिर्फ आबादी में बढ़ाने में लगें हैं मुसलमान!

मुस्लिम आबादी उवाच : ……….कुछ तो लोग कहेंगे

मुस्ताअली बोहरा, अधिवक्ता एवं लेखक
क्या भारत में मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ रही है ? क्या बढ़ती इस आबादी से दूसरे मजहबों को खतरा है ? क्या मुसलमान परिवार नियोजन के साधनों को नहीं अपनाते ? ऐसे ही कई सवाल है जो पिछले कुछ अरसे से समाज के ही एक तबके के जहन में कौंध रहे हैं। देखा जाए तो पिछले डेढ़ दशक में जो बदलाव आए हैं और राजनीतिक धु्रवीकरण हुआ है उसके बाद किसी भी घटना का दोष मुसलमानों के सिर मढ़ना आसान सा हो गया है। फिर चाहे बात कोरोना फैलने की हो, या कथित गौवंश तस्करी या गौ हत्या की हो या फिर मुसलमानों की आबादी बढ़ने की। जब जिस राज्य में चुनाव होते हैं वहां मुस्लिम आबादी भी चुनावी मुददा हो जाती है। पश्चिम बंगाल से लेकर असम तक और मध्यप्रदेश से लेकर उत्तरप्रदेश तक, मुसलमानों की आबादी को लेकर हो हल्ला होता रहा है। हालांकि, हकीकत कुछ और ही होती है लेकिन कहने वाले कहां चूकते हैं।
हाल ही में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने एक बार फिर मुसलमानों की बढ़ती आबादी को लेकर बहस को हवा दे दी। उन्होंने कहा कि बढ़ती आबादी को रोकने के लिए अप्रवासी मुसलमानों को परिवार नियोजन के तरीके अपनाने चाहिए। असम के सीएम तो ये तक बोल गए कि जनसंख्या विस्फोट जारी रहा तो एक दिन कामाख्या मंदिर की जमीन पर भी कब्जा कर लिया जाएगा। उन्होंने कहा कि हम अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के साथ मिलकर जनसंख्या नियंत्रण के लिए काम करना चाहते हैं। इस मामले पर एआईयूडीएफ और ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। मुसलमानों की आबादी को लेकर इससे पहले भी कई राजनेता विभिन्न दावे करते रहे हैं। इन दावों की पड़ताल की जाए तो हकीकत कुछ और ही सामने आती है। यदि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्टें देखी जाए तो पता चलता है कि असम की प्रजनन दर और राष्ट्रीय स्तर पर प्रजनन दर में ज्यादा अंतर नहीं है। वर्ष 2005-06 में राष्ट्रीय स्तर पर प्रजनन दर 2.7 और असम में 2.4 थी। हालिया रिपोर्ट में तो यह दर 1.87 पर है यानी प्रजनन दर 2.1 के उस लाइन से भी नीचे है, जिसे हासिल करने के प्रयास हो रहे हैं। सवाल ये है कि जिस राज्य में लगभग एक तिहाई आबादी मुसलमानों की है, वहां प्रजनन दर को कैसे काबू में लिया गया। क्या ऐसा सिर्फ गैर मुसलमानों की वजह से हुआ। बिलकुल नहीं, पिछले लगभग तीन दशकों में असम की कुल प्रजनन दर लगभग आधा कम हो गई है।
एनएफएचएस की रिपोर्ट के मुताबिक असम में सबसे कम प्रजनन दर ईसाइयों की है। इसके बाद अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति की है। और फिर इसके बाद हिन्दू और मुसलमान आते हैं। घटती प्रजनन दर से जाहिर है कि असम में मुसलमान आबादी बढ़ाने में नहीं लगे हैं। हालांकि, गुजिश्ता दशकों में मुसलमानों की शैक्षिक स्थिति ठीक नहीं थी जिसके कारण मुसलमानों में प्रजनन दर कुछ ज्यादा थी। एनएफएचएस की रिपोर्ट में ये बात है कि स्कूली शिक्षा पूरी कर चुकी महिलाओं के कम बच्चे हैं जबकि उनके ज्यादा बच्चे हैं जो स्कूल नहीं जा पाईं। वैसे ये बात सिर्फ मुसलमानों पर ही लागू नहीं होती बल्कि दिगर समुदाय पर भी लागू होती है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक असम में हिंदुओं की साक्षरता दर 77.67 फीसद है दूसरी ओर, मुसलमानों की साक्षरता दर 61.92 प्रतिशत है। इतना ही नहीं, असम में मुसलमानों के बीच साक्षरता बाकी सभी धार्मिक समूहों से कम है। शैक्षिक स्तर किसी भी इंसान या समुदाय की सामाजिक, आर्थिक तरक्की पर खासा असर डालता है। शिक्षा का ताल्लुक प्रजनन दर से भी है।
एनएफएचएस के मुताबिक असम की प्रजनन दर वर्ष 1992-93 में जहाँ यह दर 3.53 थी तो वर्ष 2019-20 में यह 1.87 पर पहुँच गई। असम में पिछले डेढ़ दशकों में हिंदुओं की प्रजनन दर 0.36 अंक घटकर 2 से 1.59 तक पहुँच गई जबकि मुसलमानों की प्रजनन दर लगभग सवा अंक घटकर 3.64 से 2.38 तक पहुँच गई। यह 2.1 की दर से थोड़ी ही कम है।

परिवार नियोजन के तरीके अपनाने में ईसाई आगे
ये भी एक मिथक है कि मुसलमान परिवार नियोजन के तरीके या साधन नहीं अपनाते। असम में मुसलमान गर्भ निरोधकों के इस्तेमाल में हिंदुओं से महज एक फीसदी ही पीछे हैं। एनएफएचएस की रिपोर्ट के मुताबिक असम में हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, अनुसूचित जाति और जनजाति के बीच गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल में ज्यादा अंतर नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-06 में गर्भ निरोधकों के इस्तेमाल में असम लगभग राष्ट्रीय औसत के बराबर था। राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 56 फीसद थी तो असम में 57। एनएफएचएस की रिपोर्ट के मुताबिक इसके बाद के सालों में ये दर बढ़ते हुए 61 प्रतिशत तक जा पहुंचीं है। खास बात ये भी है कि शहरी और ग्रामीण इलाकों में गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल के मामले में अंतर नहीं है। पिछली रिपोर्ट के मुताबिक असम में गर्भ निरोधकों के इस्तेमाल में मुसलमानों का प्रतिशत 60.1 है तो हिन्दुओं का 61.1। यानि महज एक प्रतिशत का अंतर है। हिन्दुओं से ज्यादा ईसाई और अनुसूचित जनजाति की महिलाएं गर्भ निरोधकों के इस्तेमाल में आगे हैं। पिछले डेढ़ दशक के आंकड़े बताते हैं कि हिन्दुओं के परिवार नियोजन के साधन अपनाने में थोड़ी कमी ही आई है तो दूसरी ओर इस मामले में मुसलमान का प्रतिशत 14 फीसद तक बढ़ गया है। पूर्व की रिपोर्ट के मुताबिक हिन्दुओं में गर्भनिरोधक के तरीके अपनाने का प्रतिशत 63.3 था तो मुसलमानों में 46.1। पिछले सालों में गर्भ निरोधक अपनाने के मामले में मुसलमान बढ़ते गए और अब वह 60 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। जाहिर है परिवार नियोजन के तरीके अपनाने में मुसलमान पीछे नहीं हैं।

आधुनिक तरीके अपनाने में मुसलमान अव्वल
परिवार नियोजन के आधुनिक तरीके इस्तेमाल करने के मामले में मुसलमान सबसे आगे हैं। पिछले बीस सालों के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि मुसलमानों में गर्भनिरोधकों के आधुनिक तरीके अपनाने वालों की तादाद तकरीबन साढ़े तीन गुना बढ़ी है। आधुनिक तरीके अपनाने वाले पहले मुसलमान महज 14.9 प्रतिशत थे जो बाद के सालों में बढ़कर 34.7 और फिर 49.6 प्रतिशत तक पहुंच गए। दूसरी ओर, हिन्दुओं में आधुनिक तरीके अपनाने वाले 33 प्रतिशत थे जो बढ़कर 42.8 प्रतिशत पहुंच गए। आधुनिक तरीके अपनाने में असम के सभी धार्मिक समूहों में मुसलमान अव्वल हैं। हालांकि, ये सच है कि गर्भ से बचने के पारम्परिक तरीके अपनाने वाले असम में ज्यादा हैं। देश के दिगर राज्यों की तुलना में असम में पारम्परिक तरीके सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जाते हैं।

एनएफएचएस की रिपोर्टों के मुताबिक असम में मुसलमानों में प्रजनन दर साल दर साल कम हो रही है। मुसलमानों के शैक्षिक स्तर को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि असम के मुसलमानों की प्रजनन दर दिगर समुदायों की तुलना में अधिक नहीं है। यानि मुसलमानों के बारे मे जो कहा जाता है ठीक उसके उलट है। असम में मुसलमान अन्य समुदायों की तुलना में परिवार नियोजन के आधुनिक साधन अपनाने के मामले में आगे हैं। ये किसी राजनेता का बयान नहीं है बल्कि आंकड़े बताते हैं।
खैर, असम की तरह ही अन्य राज्यों की स्थिति भी कमोबेश इसी तरह हैं। नई मुस्लिम पीढ़ी शिक्षा, रोजगार और बेहतर जीवन शैली को तवज्जों दे रही है। जम्मू कश्मीर, मध्यप्रदेश, केरल, बिहार से लेकर उत्तरप्रदेश तक के मुस्लिम युवा उच्च प्रतियोगी परिक्षाओं में कामयाबी हासिल कर रहे हैं। ये पीढ़ी छोटे परिवार-सुखी परिवार की हिमायती है। कुल मिलाकर, पिछले कुछ सालों में मुसलमानों की शैक्षिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है। उनका सामाजिक और आर्थिक स्तर भी बढ़ा है और राजनीतिक समझ भी बढ़ी है।

ये और बात है कि फिरकापरस्ती के फेर में वे एकजुट नहीं हो पाए हैं। यदि मुसलमान फिरकापरस्ती छोड़ एक हो जाए तो न सिर्फ वोट बैंक के रूप में उनका राजनीतिक इस्तेमाल बंद हो जाएगा बल्कि वे अपने हक-हुकूक की लड़ाई भी खुद लड़ सकेंगे और उसे हासिल कर सकेंगे। रही बात मुसलमानों को लेकर देश भर में चल रहे तरह-तरह मिथक की तो इसे खुद मुसलमानों को ही अपने किरदार, अपने बेहतरीन आमाल और अखलाक से तोड़ना होगा।

मुस्ताअली बोहरा, अधिवक्ता एवं लेखक
भोपाल, मप्र