काम कर गए कनफुकवा कुमार

दिव्येन्दु राय | स्वतन्त्र टिप्पणीकार

त्रेता युग से लेकर कलयुग तक के लगभग 5500 वर्षों के अन्तर में कनफुकवा कुमार लोगों की संख्या में कोई कमी नहीं आयी है हाँ कई गुना बढ़ोतरी जरूर हुई होगी। रामायण में मंथरा कैकयी का प्रसंग कोई भला कैसे भूल सकता है जिसमें राजा दशरथ की महारानी कैकेयी का किस प्रकार मंथरा ने कान फूंक कर भगवान श्री रामचन्द्र जी को उनके कोप का भाजन बना दिया।

कलयुग की 21वीं सदी में जिस बेहिसाब तरीके से जनसंख्या का घनत्व बढ़ते जा रहा है वैसे कनफुकवा कुमार लोगों की संख्या में भी बेहिसाब इज़ाफ़ा दर्ज किया जा रहा है। विश्व के हर कार्यक्षेत्र में ऐसे कनफुकवा कुमार देखे जा सकते हैं जिनका खाना दूसरे की शिकायत करके ही पचता है। “शिकायत अगर सही मुद्दों एवं बातों पर हो तो यहां तक तो एक हिसाब से चल भी सकता है लेकिन कनफुकवा कुमार लोग तो अपनी झूठी बात एवं अनर्गल प्रलाप को सही ठहराने के कई बार हद से भी पार चले जाते हैं।”

चाहे कॉरपोरेट हो या राजनैतिक क्षेत्र हर जगह कनफुकवा कुमार लोगों की भूमिका काफी विशेष होती है और कई बार तो कम्पनियां दिवालिया एवं नेता जनताविहीन इन्हीं अपने कनफुकवा कुमार लोगों की वजह से हो जाते हैं। लेकिन इसका सही अंदाज़ा मालिकान लोगों को तभी हो पाता है जब सबकुछ खत्म हो चुका होता है।

राजनैतिक क्षेत्र में अगर ध्यान से देखेंगे तो इन कनफुकवा कुमार लोगों को धरातल पर काम करने वाले लोगों की न तो परवाह होती है और न ही कोई मतलब, हाँ अपना काम पड़ने पर सब्जबाग दिखाना तो कनफुकवा कुमार लोग अपना मौलिक अधिकार समझते हैं। वहीं कॉरपोरेट घरानों के कनफुकवा कुमार लोग न तो ग्रास रूट लेवल पर काम करने वाले कर्मचारियों की समस्या को समझने का प्रयास करते हैं और न ही उनके हित में कुछ भी काम करने का। कनफुकवा कुमार लोग अपनी झूठ की थ्योरी को सच साबित करने की जुगत में अपने कार्य क्षेत्र के ही कुछ लोगों को सब्जबाग दिखाकर पहले अपने साथ मिलाते हैं एवं उसके बाद किसी एक को लक्ष्य बनाकर उसकी शिकायत करते हैं। कनफुकवा कुमार झूठ को इतना तेज़ और इतने लोगों से बुलवा देते हैं कि वह सच न होने के बावजूद सच लगने लगता है और सच उसके सामने धुंधला नज़र आने लगता है।

यहां तक कि जिसके खिलाफ कान फूँक रहे होते हैं उसके सभी अच्छे कार्यों को अपना एवं अपने बुरे कार्यों को उसके हिस्से में बताने से भी नहीं कतराते हैं। कनफुकवा कुमार लोगों की सबसे बड़ी समस्या सम्मान देने में होती है, वह जिसे अपने से आर्थिक या सामाजिक तौर पर कमज़ोर समझते हैं उसे सम्मान देना तो उससे ठीक से सम्मानित तरीके से बात करना भी गवारा नहीं समझते।

कनफुकवा कुमार लोगों का सबसे पहला लक्ष्य वह होता है जो निरीह एवं कमजोर होता है तथा उनके स्वार्थ की पुर्ति वाले राह में रोड़े अटका रहा होता है। उस व्यक्ति को राह से हटाने के बाद कनफुकवा कुमार शान्त बैठकर अगले राह के रोड़े को रास्ते से हटाने की प्लानिंग में मशगूल हो जाते हैं।

कनफुकवा कुमार लोग अपने बातचीत के क्रम में यह कहते हुए देखे जाएंगे कि मुझे उक्त संस्थान/राजनैतिक दल से कुछ चाहिए ही नहीं,मेरे पास तो पहले से ही इतना कुछ है लेकिन वास्तविकता में सबसे बड़ी चाहत उनकी ही होती है और उनकी इस चाहत में कनफुकवा कुमार की नज़रों में जो जाने अनजाने में अड़ंगा लगा रहा होता है वह तत्कालिक सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है।

अगर भारतीय राजनीति को ध्यान से देखा जाए तो कई दर्जन राजनैतिक दलों का अन्त भी इन्हीं कनफुकवा कुमार लोगों की वजह से ही हो गया जहाँ धरातल पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं के बजाय कनफुकवा कुमार लोगों को ज्यादे तवज्जों मिलने लगी थी। बदलते वक्त के साथ उन राजनैतिक दलों के बुरे दिनों में कनफुकवा कुमार लोग तो सबसे पहले साइबेरियन पक्षियों की तरह विलुप्त हो गए, उसके बाद बस वही कुछ धरातल के कार्यकर्ता रह गये जिनको समाज का भय था कि अगर उन्होंने भी बुरे दिन में छोड़ दिया तो समाज एवं क्षेत्र क्या कहेगा? लेकिन राजनैतिक कनफुकवा कुमार लोग अधिकांशत तो न तो नेता के आस पास के किसी क्षेत्र के होते हैं और न ही उनका कोई सामाजिक तानाबाना होता है। उनका एकमात्र ध्येय खुद को येन केन प्रकारेण शशक्त करना होता है।

कनफुकवा कुमार लोग अनेक लीलाओं में पारंगत होते हैं एवं नेता अथवा संस्थान के किसी बड़े व्यक्ति से किसी के बारे में कान में बुरा फूँकने के बाद यूं मन्द मन्द मुस्कुराते हैं जैसे 1857 के क्रान्ति की बिगुल उन्होंने ही छेड़ दी हो।