नाम के पक्ष में : डॉ रमाकान्त राय
कहानी के पात्रों के नामों के कारण पाठकों को यह भ्रम हो गया कि प्रेमचंद ने कृष्ण भगवान के जीवन पर यह कहानी लिखी है।
प्रसिद्ध कथाकार प्रेमचंद की कहानी ‘दो भाई’ सबसे पहले उर्दू में ‘जमाना’ पत्रिका में जनवरी, 1916 ई० में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में प्रेमचंद ने भाइयों का नाम किशन और बलराम रखा था। बाद में जब यह कहानी हिंदी में प्रकाशित हुई तो भाइयों का नाम बदलकर केदार और माधव कर दिया गया। इस कहानी में आधुनिक काल के भाइयों में व्याप्त इर्ष्या, द्वेष और वैमनस्य आदि का चित्रण है। जब यह कहानी उर्दू में प्रकाशित हुई तो पाठकों ने आपत्ति की कि प्रेमचंद ने “किशन और बलराम के सम्बन्धों को ऐसा इर्ष्यामय तथा स्वार्थमय दिखाया कि एक भाई दूसरे भाई के मकान को खुद ही गिरवी रखने को तैयार हो गया। कहानी के पात्रों के नामों के कारण पाठकों को यह भ्रम हो गया कि प्रेमचंद ने कृष्ण भगवान के जीवन पर यह कहानी लिखी है।”(कमल किशोर गोयनका, भूमिका, प्रेमचंद कहानी रचनावली: खण्ड 2) प्रेमचंद ने इन आपत्तियों का संज्ञान लेते हुए फरवरी, १९१६ में जमाना में ही एक स्पष्टीकरण दिया और बताया कि नाम इसलिए प्रयुक्त किये गए थे कि लोगों के समक्ष उन नामों में छिपे सम्मान और प्रेम के उच्च भाव का आभास होता रहे और लोग वर्तमान की पतित अवस्था का भी अनुमान करते रहें।
उनके शब्द हैं- “मेरा मंशा यह दिखाना था कि जहाँ कृष्ण और बलराम जैसे भाई थे, वहां अब उन्हीं के नामलेवा कितने खुदगर्ज और फरोगाया (कृतघ्न) हो गए हैं। हम इसी मुल्क के रहने व अपने को इन्हीं बुजुर्गों का पैरो (अनुयायी) कहने वाले, हमको अगर उनसे कोई ताल्लुक है तो वो महज नामों का है, और सभी बातों में हम बिलकुल मयार से गिरे हुए हैं।” (प्रेमचंद, पत्रकोश, पृष्ठ-१७५)स्पष्टीकरण के बाद भी उन्होंने इस कहानी के पात्रों के नाम बदल दिए।
प्रेमचंद नाम के महत्त्व को बहुत अच्छी तरह समझते थे। उनकी कहानी ‘पंचों में ईश्वर’ का नाम सरस्वती पत्रिका के यशस्वी संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बदलकर ‘पञ्च परमेश्वर’ कर दिया था। उन्होंने इस परिवर्तित नाम में छिपे ‘चमक’ को लक्षित किया था।सरस्वती पत्रिका में मई, १९१८ में प्रकाशित ‘बलिदान’ शीर्षक कहानी में प्रेमचंद ने नाम चर्चा की है और प्रारंभ ही इस पंक्ति के साथ किया है- “मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे जियादह असर उसके नाम पर पड़ता है।” उनकी कई कहानियों के शीर्षक में ‘मोटेराम शास्त्री’ का सायास प्रयोग है।प्रेमचंद के उपन्यासों के नाम भी बहुत सार्थक हैं।
आधुनिक काल में कहानीकारों ने नाम को लेकर कई प्रयोग किये हैं। कमलेश्वर की कहानी ‘राजा निरबंसिया’इहलोक और कथालोक को लेकर चलने वाली व्यंजक कहानी है।उस कहानी में जिस राजा निरबंसिया की कहानी है उस राजा का नाम तो नहीं है किन्तु राजा और उनकी चन्द्रमा जैसी रानी का उल्लेख है। कथालोक से इतर कथाकार जिन पात्रों को अपनी कहानी का अंग बनता है, वह हैं, जगपती और चंदा। जगपती नाम राजा का ही एक पर्याय है और चंदा राजा की पूर्वोक्त चन्द्रमा जैसी रानी का संकेतक।कहानी में कथाकार के “ख्यालों का राजा था, जगपती।” कहानी इस नाम/विशेषण साम्य से आगे बढ़ती है और कथालोक के राजा रानी की अवधारणा को चिह्नांकित करती है।
हंस के संपादक रहे और आधुनिक मूर्तिभंजक कहे जाने वाले कथाकार राजेन्द्र यादव की कहानी ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ नाम प्रयोग की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कहानी है।इस कहानी के आरंभ में ही लेखक ने उद्घोषणा की है- “ज़रा ठहरिए, यह कहानी विष्णुत की पत्नीै लक्ष्मीन के बारे में नहीं, लक्ष्मी नाम की एक ऐसी लड़की के बारे में है जो अपनी क़ैद से छूटना चाहती है। इन दो नामों में ऐसा भ्रम होना स्वा भाविक है जैसा कि कुछ क्षण के लिए गोविंद को हो गया था।” कहानी में लक्ष्मी और गोविन्द का नाम प्रयोग भी सायास है। लक्ष्मी कैद से छूटना चाहती है और गोविन्द की विवशता वातावरण को यंत्रणादायी बनाती जाती हैं। यहाँ गोविन्द नाम से भगवान् विष्णु के तीनों लोकों के स्वामी होने का प्रच्छन्न भाव नेपथ्य में बना रहता है और लक्ष्मी से समृद्धि की अधिष्ठात्री देवी का।जैसा कमलेश्वर की कहानी राजा निरबंसिया में जगपती और चंदा नाम से बनता है।
नई कहानी की त्रिमूर्ति के सबसे प्रतिभावान हस्ताक्षर मोहन राकेश के नाटक ‘आधे अधूरे’ की केन्द्रीय चरित्र का नाम सावित्री है।सावित्री पौराणिक आख्यानों में पतिव्रता नारी के पर्याय की तरह है किन्तु इस नाटक में सावित्री एक अपूर्ण नारी के रूप में चित्रित हुई है जो अपनी वासना और आकांक्षा की पूर्ति के लिए असंतुष्ट और व्यग्र दिखती है। ऐसी बहुत सी कहानियों/रचनाओं का नाम लिया जा सकता है जिसमें रचनाकारों का लक्ष्य नाम का मूल्य भंजन है।
वस्तुतः आधुनिकता की अवधारणा ने जिन्हें प्राचीन और मध्यकालीन मूल्य माना उनको ध्वस्त करने के लिए कई प्रयोग किये।नाम भी इसी तरह का एक मध्यकालीन मूल्य है।प्राचीन हिन्दू ग्रंथों में भक्ति के नौ प्रकार कहे गए हैं। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। इसमें ईश्वर के नाम का श्रवण, कीर्तन और स्मरण एक महत्त्वपूर्ण घटक है। हिंदी साहित्य के भक्तिकाल, जो मध्य काल के अंतर्गत आता है; में समस्त भक्त कवियों ने नाम स्मरण के महत्त्व को रेखांकित किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने नाम महिमा का बखान करते हुए लिखा है- ‘जान आदिकबि नाम प्रतापू।भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥’ आदिकवि वाल्मीकि राम नाम के प्रताप को जानते हैं। वह उल्टा नाम जपकर पवित्र हो गए। वह अन्दर और बाहर दोनों को प्रकाशित करने के लिए राम नाम के मणिदीप को जिह्वा रुपी द्वार पर रखने की बात करते हैं।
भक्तिकाल के अन्य प्रमुख कवियों कबीरदास, रविदास, सूरदास आदि ने भी नाम के माहात्म्य को प्रकाशित किया है। कबीर दास अपनी एक साखी में कहते हैंकि ‘जब (भगवान) का नाम हृदय में रखा, तभी पाप का नाश हो गया।’ नाम की महत्ता इतनी बढ़ गयी थी कि राम से बड़ा उनका नाम मान लिया गया जिसका जाप करके व्यक्ति भव सागर से पार हो सकता है।
वर्तमान समय में नाम को तोड़ने और पुनर्स्थापित करने का विमर्श भी जोरों पर है।हाल में ही आई चर्चित फीचर फिल्म ‘आदिपुरुष’ में भी पौराणिक चरित्रों के आमजन में स्वीकृत नाम जानबूझ कर छोड़कर पर्याय रखे गए थे और पुनर्स्थापित करने वाले समूह ने इसपर कड़ी आपत्ति जताई थी।
आधुनिकता की अवधारणा ने आँख मूँदकर प्राचीन और मध्यकालीन मूल्यों को तोड़ने का अभियान चलाया था।इस क्रम में नाम कोटि भी आई। जब मूल्यभंजन के क्रम में अच्छे और उपयोगी तत्त्वों को भी लक्षित किया जाने लगा तो परम्परा की दुहाई दी गयी। यह कहा गया कि परम्परा,विरासत में मिले हुए को भविष्य तक पहुँचाने हुए से जुड़ी हुई धारणा है। हाँ, इसमें निरन्तर परिष्कार होता रहता है और यह रूढ़ि तथा सड़े गले अंशों को त्याग कर सतत चलने वाली प्रक्रिया है।वर्तमान पीढ़ी को अपने आदर्श और मूल्यों को संरक्षित करने तथा सुरक्षित रखकर संवर्द्धित करने का प्रयास इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए।
डॉ रमाकान्त राय, (स्तम्भकार, लेखक)
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी
पञ्चायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
इटावा, उत्तर प्रदेश