नई चुनौतियां हैं तो नए अवसर भी जश्न-ए-आज़ादी: बोल कि लब आजाद हैं तेरे
बोल कि लब आजाद हैं तेरे
बोल जबाँ अब तक तेरी है
तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है..........
जश्न-ए-आज़ादी के मुकद्दस मौके पर फैज अहमद फैज की ये लाईनें बरबस ही याद आ जाती हैं। आजादी के सात दशक बाद भी क्या हम आजाद हैं, और हैं भी तो कितने। न गरीबी से आजादी मिली, न बेरोजगारी से, न जातिगत मतभेदों से और न कुप्रथा से। कौन क्या खाएगा क्या नहीं, क्या पहनेगा क्या नहीं, इन सब चीजों पर भी विवाद होते रहते हैं। कहीं किसान अपनी मांगों को लेकर आंदोलित हैं तो कहीं साम्प्रदायिक उन्माद होता रहता है। जम्मू कश्मीर से लेकर पश्चिम बंगाल तक, असम और मिजोरम से लेकर छत्तीगढ़ तक ज्यादातर राज्यों में गंभीर समस्याएं हैं कहीं सीमा विवाद है तो कहीं साम्प्रदायिक उन्माद तो कहीं आतंकवाद तो कहीं नक्सल समस्या, लेकिन सरकार आत्मप्रशंसा में लीन है। किसी ने सरकार की रीति-नीतियों पर सवाल उठाए या विरोध किया तो वो देशद्रोही हो गया। बहरहाल, कहने को तो हम स्वतंत्र भारत में रहते हैं, हम खुली सोच और खुले दिल वाले लोग हैं लेकिन हकीकत शायद कुछ और ही है। आजादी के बाद से अब तक सरकारें तो बदलती रहीं लेकिन व्यवस्था नहीं बदली।
सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं.....।
दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आज़ाद है।।
अदम गोंडवी की लाइनंे आज भी मौजूं हैं। यूं तो ये गर्व की ही बात है कि हम दुनिया के ऐसे देश में रहते हैं जहां अलग-अलग मजहब, सम्प्रदाय, भाषा, संस्कृति, कला, धार्मिक तीज-त्यौहार पुष्पित और पल्लिवत है। साल दर साल हम तरक्की के नए सोपान तय कर रहे हैं। बावजूद इसके हर साल बेरोजगारी बढ़ रही है, माकूल चिकित्सा के अभाव में मौतें हो रहीं हैं, स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद कई विद्यार्थी काॅलेज नहीं जा पाते, उच्च शिक्षित और तकनीकि डिग्रीधारी युवाओं को रोजगार नहीं मिल पा रहा है। भले ही हम 5 जी युग में प्रवेश कर रहे हों लेकिन आज भी देश के कई गांवों में पीने का साफ पानी नहीं मिल पा रहा है, कई गांव सड़क से अछूते हैं तो कई हिस्सों में बिजली ही नहीं रहती। अब, कोरे वादे और थोथली घोषणाओं की जरूरत नहीं है बल्कि जरूरत है तो दृढ इच्छा शक्ति की ताकि संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के तहत मूलभूत सुविधाएं सबकी पहुंच में हो। इसमें कोई शक नहीं कि पिछले सात दशकों में देश में तकनीकि, औद्योगिक, शैक्षिक, आर्थिक रूप से तरक्की की है। बावजूद इसके कोरोना काल में सामने आई कमियों ने सोचने के लिए विवश कर दिया है। राजनीतिक नेतृत्व कभी देश की दशा और दिशा का निष्पक्ष विवेचन नहीं करता बल्कि आंकड़ों का प्रदर्शन कर महज उपलब्धियां गिना दी जाती हैं। वैसे तो सरकार के पास गिनाने के लिए कई उपलब्धियां हैं जिनमें नई और पुरानी दोनों ही शामिल है। लेकिन उपलब्धियों के दूसरे पलड़े में नाकामियां भी कम नहीं हैं। जब पूरे देश में जंग-ए-आजादी चल रही थी तो अमीरी-गरीबी का भेदभाव, उंच-नीच, जात-पात को खत्म करने, कुप्रथाओं को बंद करने जैसी कई प्राथमिकताएं थीं। ये माना जा रहा था कि कोई किसी का शोषण नहीं करेगा, कोई गरीब नहीं रहेगा लेकिन आजादी के इतने सालों बाद भी ऐसा नहीं हो पाया। खेती आधारित देश होने के कारण अर्थव्यवस्था मजबूत हुई, रक्षा क्षेत्र में तरक्की हुई लेकिन अमीरी और गरीबी के बीच की गहरी खाई नहीं पटी, साम्प्रदायिक सदभाव कम हुआ। अंग्रेजों के शोषण-दमन से भले ही आजादी मिल गई हो लेकिन ऐसी ही समस्याओं से आजादी नहीं मिल पाई। राजनीतिक पार्टियों का पूरा जोर सरकार बनाने में लगा रहा न कि समस्यामुक्त समाज और देश बनाने में। कुल मिलाकर, यदि हमारी उपलब्धियां हमारी क्षमताओं को दर्शातीं हैं तो कमियां हमारी लापरवाही और गैरजिम्मेदारी को।
तमाम अस्थिरताओं और तिस पर भी कोरोना संकट के बीच एक बार फिर स्वाधीनता दिवस हमारे सामने उपस्थित है। नई चुनौतियां हैं तो नए अवसर भी हैं। बात जश्न-ए-आजादी की हो रही है। यूं तो आजादी का मतलब ये है कि हर नागरिक खुद को अधिकारसंपन्न महसूस करे। संविधान में भी हरेक बाशिंदे को समान अधिकार दिए गए हैं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर क्या हर किसी को बराबर अधिकार हासिल हैं, क्या सभी को समान रूप से न्याय मिल पा रहा है, क्या हर किसी को समान रूप से शिक्षा और रोजगार मिल पा रहा है ऐसे ही कई सवाल आज भी खड़े हुए हैं। ये भी सच है कि पहले की बजाए अब लोग अपने अधिकारों को लेकर ज्यादा सजग हो गए हैं। आगे बढ़ने की आकांक्षा बढ़ी है, जो किसी न किसी रूप में व्यक्त भी हो रही है। अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा भी बढा है। आज सोशल मीडिया पर लोग खुलकर अभिव्यक्ति व्यक्त कर रहे हैं। लोगों की सामाजिक-राजनीतिक चेतना इनके जरिए विस्तार पा रही है। बहरहाल, दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं जहां कोई न कोई समस्या न हो, अपने मुल्क में भी है। लेकिन अहम ये है कि क्या हम समस्याओं के समाधान के लिए संकल्पित हैं ? क्या अपनी जिम्मेदारियों को हम अपनी स्वतंत्रता का अभिन्न अंग बनाने का भी संकल्प लेंगे ? या फिर हर समस्या के लिए सरकार पर ठीकरा फोड़ते रहेंगे। ये भी विडम्बना है कि शौच खुले में नहीं करना है, कचरा सड़क पर नहीं फेंकना है, यातायात के नियमों का पालन करना है जैसी छोटी-छोटी बातों के लिए भी सरकार को अभियान चलाना पड़तें हैं, विज्ञापन जारी करना पड़ते हैं। फिर भी लोग हैं कि समझते ही नहीं। किसी भी समाज या देश की तरक्की के लिए उसके नागरिकों का अपनी जिम्मेदारियों के प्रति संकल्पित होना महत्वपूर्ण होता है। इस बार आजादी में हम यही संकल्प लें कि अपने समाज और देश की तरक्की के लिए काम करेंगे।
आजादी के बीते सालों में देश ने काफी विकास किया है। वैश्विक स्तर पर आज भारत की एक विशेष पहचान है, लेकिन सामाजिक स्तर पर अभी काफी सुधार की गुंजाइश है। लोक-कल्याण, सामाजिक समरसता, न्याय, समानता, एकता एवं अखंडता और भाईचारे को मजबूत करना होगा। जरूरी है कि हम खुद को मजहब, वर्ग, फिरकों में न बांटकर सिर्फ भारतीय नागरिक होने के बात करें। जहां तक राजनीतिक दलों का सवाल है तो इनका मकसद महज सत्ता प्राप्ति तक सीमित होकर रह गया है इसलिए भारतीय लोकतंत्र और राजनीति को सहीं दिशा देने का काम भी हमें ही करना होगा, वह भी देशहित को सर्वोपरि रखकर।
आखिर में, अटल जी पंक्ति याद आ गई।
पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने लिखा था-
‘पन्द्रह अगस्त का दिन कहता, आजादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी हैं राखी की शपथ न पूरी है।।’
हकीकतन आजादी अभी भी अधूरी है। उसे पूरा करने के लिए ईमानदार, सार्थक और दूरदर्शी प्रयासों की जरूरत है।
।। जयहिंद ।।
—मुस्ताअली बोहरा
अधिवक्ता एवं लेखक
भोपाल, मप्र