मातृभाषा के प्रति जन चेतना जरूरी: पीयूष कान्त राय
मातृभाषा की उन्नति बिना किसी भी समाज की तरक्की संभव नहीं है तथा अपनी भाषा के बिना मन की पीड़ा को दूर करना भी मुश्किल है।
के.कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट पर आधारित नई शिक्षा नीति (2020) जिसे पूरी तरह लागू होने में अभी समय है। विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों में इस नीति की बारीकियों पर विस्तार से चर्चा हो रही है तथा इसके लागू करने से होने वाले फायदे-नुकसान को बेहतर तरीके परखा जा रहा है। लेकिन इन कयासों के बीच कुछ अनसुलझे से परिणाम आने शुरू हो गए हैं। सबसे पहले एनटीए द्वारा आयोजित सीयूईटी स्नातक एवं परास्नातक संयुक्त प्रवेश परीक्षा अपनी अनियमित उत्तर कुंजी जारी करने को लेकर विवादों में रहा जिसमे कई बार उत्तर कुंजी जारी करने के बाद भी अनेक गलतियाँ रहीं इसके अलावा परीक्षा केंद्रों को लेकर भी लापरवाही बरती गई।
छात्रों को अलग-अलग परीक्षाओं के लिए 2 दिन के भीतर ही करीब 2-3 शहरों में दौड़ना पड़ा। मई के महीने में जब पूरा उत्तर भारत लू की चपेट में था,गर्मी एवं हीट वेब से सैकड़ों लोगों की जानें जा रही थीं उस वक्त छात्रों का परिक्षाकेन्द्रों को लेकर दौड़-भाग बेहद खतरनाक था। इतनी गड़बड़ी के बाद छात्रों का इस परीक्षा पद्धति से भरोसा उठता जा रहा है।अभी उपरोक्त गहमागहमी चल ही रहा था कि एनटीए ने पीएचडी में प्रवेश के लिए देश के सर्वोच्च विश्वविद्यालय जैसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,काशी हिंदू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय तथा बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय का प्रवेश फॉर्म निकाला,जिसकी सूचना में प्रवेश परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी किया गया था। हालाँकि छात्रों के भारी दबाव के चलते इस निर्णय को वापस लेकर उसमें हिन्दी भाषा को भी माध्यम बनाया गया। लेकिन इस अफरातफरी के बीच उच्च पदों पर बैठे लोगों की मंशा का अंदाजा हो गया।
इस प्रकार महीनों से चर्चा का विषय रहा सीयूईटी संयुक्त प्रवेश परीक्षा का क्रियान्वयन होने से पहले ही विवादों में घिर गया। अपने इस निर्णय से शिक्षा व्यवस्था में औपनिवेशवाद द्वारा थोपी गई मानसिकता का द्योतक अँग्रेजी भाषा की अहमियत पर सवाल उठने लगा है।एक तरफ नई शिक्षा नीति में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में पढ़ाने पर जोर दिया गया है तो वहीं दूसरी तरफ उच्च शिक्षा में अँग्रेजी भाषा को जबरन थोपा जाना दोहरी मानसिकता का द्योतक है।
मातृभाषा का महत्व बताते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा है कि
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के,मिटे न हिय के सूल”।
अर्थात मातृभाषा की उन्नति बिना किसी भी समाज की तरक्की संभव नहीं है तथा अपनी भाषा के बिना मन की पीड़ा को दूर करना भी मुश्किल है।
अँग्रेजी भाषा आज के दौर में वैश्विक भाषा है जो प्रत्येक महाद्वीप में बोली एवं समझी जाती है। परंतु भारत जैसे देश मे जहाँ हर क्षेत्र की अपनी विशिष्ठ भाषा एवं बोली है। ऐसे में किसी एक भाषा खासतौर पर किसी आयातित भाषा को शोध प्रबंध की प्रवेश परीक्षा में साजिश के तहत अनिवार्य करना किसी भी तरीके से जायज नहीं ठहराया जा सकता है। उच्च शिक्षा में तमाम ऐसे विद्यार्थी हैं जो अँग्रेजी भाषा मे असहज महसूस करते हैं।यहाँ तक कि विश्वविद्यालयों में बड़े-बड़े प्रोफेसर्स जो अकादमिक जगत में अपना लोहा मनवा चुके हैं ,ऐसी शख्सियतें भी अँग्रेजी ज़बान में दक्ष नहीं हैं। भारत जैसे देश में शिक्षा विभाग मुख्य रूप से एनटीए का गैर अँग्रेजी भाषियों के प्रति नकारात्मक रवैया को समझ पाना दुष्कर है।
औपनिवेशवाद ने सभ्यता के बहाने कला,संस्कृति एवं भाषाओं के साथ जो प्रयोग किया उसका दंश सदियों तक गाहे-बगाहे देखने को मिलता रहेगा।ऐसे ही अल्जीरिया के सुप्रसिद्ध लेखक कातेब यासिन ने फ्रांसीसी शासन पर व्यंग करते हुए कहा कि “मैं फ्रेंच में इसलिए लिखता हूँ ताकि फ्रांसीसियों को बता सकूँ की मैं फ्रेंच नहीं हूँ” उपरोक्त कथन में लेखक का गुस्सा,दर्द एवं बेबसी को साफ-साफ देखा जा सकता है।गौरतलब है कि सन 1830 में फ्रांसीसी कब्जे के बाद से अल्जीरिया में मानवता का जो हश्र हुआ तथा वहाँ की वास्तविक संस्कृति एवं पहचान का जो दमन हुआ उससे पूरा विश्व अवगत है।
अपने अंग्रेजीदाँ व्यवहार के लिए संघ लोक सेवा आयोग प्रत्येक वर्ष चर्चा का विषय बन जाता है,इसी प्रकार उच्च शिक्षा में भी अँग्रेजी को अनिवार्य करना तथा मातृभाषा को तरजीह न देना भविष्य में शिक्षा क्षेत्र के लिए खतरे की घंटी है।और दुर्भाग्यवश इस बार खतरा देश के अन्दर मुट्ठी भर गुलाम मानसिकता वाले लोगों की ओर से है जिन्हें भारतीयता से कोई लेना-देना नहीं है।
शोध प्रबंध एवं मातृभाषा की महत्ता विषय की प्रासंगिकता पर ऐसी विचारधाराएँ एक प्रश्न खड़ा करती हैं कि क्या अँग्रेजी के अलावा किसी दूसरी भारतीय भाषा में गुणवत्तापूर्ण शोध संभव है ? तो इसका जवाब बिल्कुल सीधा और सरल है। गुणवत्तापूर्ण शोध तभी संभव है जब विषय की बारीकियों को सांगोपांग समझ लिया जाय अर्थात उसे किसी भी भाषाई मर्यादा में कैद करने के बजाय उसकी व्यवहारिकता पर ध्यान दिया जाय जिसमे मातृभाषा सबसे कारगर है। मातृभाषा के महत्व को खारिज करके गुलाम मानसिकता की भाषा थोपने से बेहतरीन शोध की अपेक्षा रखना बेईमानी है।हम कई बार दिखावे की संस्कृति में पड़कर अपनी वास्तविक पहचान भूलने लगते हैं और अंततः यही हमारे विनाश का मूल वजह होता है।
मातृभाषा के प्रचार-प्रसार हेतु हमेशा बड़ी-बड़ी बातें की जाती रही हैं लेकिन धरातल पर उन बातों का क्रियान्वयन होता दिख नहीं रहा है। ऐसे में सरकार को भारतीयता को बढ़ावा देने वाली योजनाओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए खासतौर से तब जब विदेशी ताकतें देश को कमजोर करने में लगी हुई हैं। भारत सही मायनों में विश्वगुरु बनने की दिशा में मजबूती से कदम तब रखेगा जब किसी आयातित भाषा की महत्ता को कम करके महान गौरवमयी इतिहास धारण की हुई अपनी भाषाओं के प्रति सौहार्दपूर्ण रवैया अपनाकर इन भाषाओं को उचित स्थान मिलेगा।
सारांश– इस लेख में पीएचडी संयुक्त प्रवेश परीक्षा का माध्यम अँग्रेजी करने तथा अन्य भाषाओं को नजरअंदाज करते हुए तुगलकी फरमान की विवेचना की गई है। हालाँकि बाद में छात्रों की नाराजगी के चलते इस निर्णय को वापस लेकर हिन्दी को भी माध्यम बनाया गया लेकिन इस निर्णय ने एक बार फिर उच्च पदों पर आसीन लोगों का मातृभाषा के प्रति उदासीनता प्रदर्शित हो गया।
पीयूष कान्त राय
शोध छात्र,फ्रेंच विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय