दीवाली तब और अब….
“दीप जलाओ प्रेम का ,कि अन्तस का अंधियार टले !करो उजाला झोपड़ियों मॆं भी,जन-जन कॊ उजियार मिले ॥”
हमारा देश आरम्भ से ही एकता व आपसी भाईचारे को बनाये रखने वाले त्यौहारों व उत्सवों का देश रहा है जो हमारी संस्कृति का प्रतीक माने जाता हैं।हमारे समस्त वार-त्यौहार जन-जन को कोई न कोई सन्देश अवश्य देते हैं। नवरात्र के आगमन के साथ ही हमारे त्योहारों की भी शुरुआत हो जाती है !प्रत्येक त्यौहार का वास्तविक उद्देश्य बुराई कॊ जड़ से समाप्त कर ,अच्छाई कॊ बनाये रखना होता है,फिर चाहे व दशहरा , होली या दीपावली हो।दीपावली मनाने के भी अनेक पौराणिक व धार्मिक कारण हैं
हमारे हिंदू धर्म और शास्त्रों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान कार्तिक मास की अमावस्या के दिन समुद्र मंथन करते समय माता लक्ष्मी जी की उत्पत्ति हुई थी। इसीलिए दीपावली के शुभ दिवस पर हम सभी माता लक्ष्मी का अवतरण दिवस मनाते हैं व सौंधी माटी के दीप प्रज्वलित कर माता श्री लक्ष्मी जी व उनके साथ ही श्रीगणेश जी का पूजन भी करते ।
दीपावली मनाने महत्वपूर्ण कारण ये भी है जब भगवान राम रावण को हराकर और माता सीता को आज़ाद कराकर और चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके लक्ष्मण ,सीता मैया व रामभक्त हनुमान जी के अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने पूरे अयोध्या को दीप जलाकर जगमग-जगमग रोशनी से सजा दिया था तभी से ही हमारे भारतवर्ष में दिवाली के त्योहार का मनाना शुरू होना माना जाता है।ऐसे ही अनेक धार्मिक व पौराणिक कथाएं जुड़ी हैं हमारे दीपोत्सव से।
बात करते हैं दीपोत्सव के पावन पर्व को मनाने के बदलते स्वरूप की , तो परम्परागत रुप से मनाये जाने वाले इस त्यौहार का आज स्वरूप भी बदलते समय के साथ-साथ बहुत बदल गया है !हमारे बचपन मॆं हम देखते थे कि जहाँ लोग महीनों पहले अपने घरों मॆं लिपाई-पुताई कराते थे , वहीँ अधितर लोग खुद अपने हाथों से ही अपने घर की लिपाई पुताई करते थे और रंगीन पेपर व आम व केले के पत्तों से सुंदर बंदनवार भी खुद ही बनाकर अपने घर की साज-सज्जा करते थे तो वहीँ दूसरी ओर घर की महिलायें भी प्राकृतिक रंग तैयार करके दीवाली के दिन घर के मुख्य द्वार पर या आँगन के बीच मॆं बहुत सुंदर और मनमोहन रंगोली बनाया करती थी !जो देखता था वो तारीफ किये बगैर नहीँ रहा पाता था !इन्हीं त्योहारों के बहाने से सधारण से साधारण दिखने वाली घर की बहू-बेटियों की प्रतिभा सामने आ ही जाती थी ,उन्हें भी बड़ी खुशी होती थी जब कोई उनकी कला की तारीफ करता था !तीस के दशक की बात करें तो उस समय अधिकतर मिठाइयाँ भी महिलायें अपने घर पर ही बनाया करती थी ,जिससे पैसे की बचत तो होती ही थी साथ ही शुध्द घर की बनी मिठाइयों का स्वाद भी अलग ही होता था क्योंकि मिठाई के साथ ही उसमें मिठाई बनाने वाले के प्रेम की महक और अपनेपन का अहसास भी हमें होता था ॥तरह-तरह के पकवानों की महक से रसोईघर भी महक उठता था !तब सौंधी मिट्टी से बने दीये ही जलाये जाते थे दीवाली पर रोशनी के लिये !घर की मुन्डेर पर जगमग करते जब दीये जब जलते थे तो मन मयूर नाच उठता था जलते दीयों की छटा भी देखते ही बनती थी ।
घर-आँगन जगमगा जाता था इन मिट्टी के दीयों से, महीनों पहले ही दिवाली के दीये तैयार करने मॆं जुट जाते थे कुम्हार भी और जब उनके द्वारा बनाये गये मिट्टी के दीये हाथों हाथ बिक भी जाया करते थे और खिल उठते थे चेहरे कुम्भकार के भी क्योंकि दीये की बिक्री से मिले पैसों से ही उनका भी दीवाली का त्यौहार मानता था व उनके व उनके परिवार के चेहरे भी त्यौहारी खुशियों से चमक उठते थे,खिल उठते थे।
हाँ ! मोमबत्ती का प्रयोग भी आज बदलते वक्त के साथ बदला है ,आज बाजार मॆं अनेक रंगबिरंगी मोमबत्ती अनेक डिजायनो मॆं मिल जाती हैं !
किंतु ! आज चाइनीज झालरें और बल्ब या सजावट के लिय अनेक प्रकार के लुभावने सामान बाजार मॆं उपलब्ध होने के कारण लोग मिट्टी के दीयों कॊ भूलकर इन बिजली से जलने वाली चाइनीज झालरोँ के मोह मॆं पड कर रह गये हैं जिससे बिजली तो व्यर्थ खर्च होती ही है साथ ही कुम्हारो के रोजगार भी न के बराबर ही रह गये हैं क्योंकि आज मिट्टी के दीये लोग सिर्फ शगुन के तौर पर बहुत ही कम संख्या मॆं खरीदते हैं…
वही आज कुम्हार के साथ-साथ भाट का भी रोजगार प्रभावित हुआ है , पहले लोग खील-बताशे और चीनी या खाँड़ से बने खिलौने ही मिठाई के तौर पर बांटते थे ,किंतु आज तो अनेक प्रकार की मिठाइयों से भरे लुभावने गिफ्ट पैक बाजार में उपलब्ध हो गये हैं तो खील-बताशे या मिठाई से बने खिलौने बाँटने या उपहार स्वरूप देने मॆं लोग शर्म महसूस करने लगे है..!त्यौहार वही हैं , हाँ बस ! बदलते वक्त के साथ ही बदल गया है ढंग इन्हें मनाने का !एक विडम्बना ये भी रही है बदलते वक्त के साथ ही जहाँ निम्न वर्ग से दीपावली के त्यौहार की खुशी बढ़ती महँगाई के कारण दूर होती जा रही है वहीँ मध्यम वर्ग भी महँगाई के कारण त्यौहार मनाने कॊ लेकर असमंजस में रहा है क्योंकि उच्च वर्ग की देखादेखी के चलते न तो वो उनसे कम दिखना चाहता है और बराबरी करने की आर्थिक स्थिति नहीँ होने के कारण या तो वो कर्ज लेकर त्यौहार मनाता है या फ़िर हीन भावना का शिकार हो रहा है।इस बार जहां कोरोना की मार झेल रहा है पूरा देश तो आर्थिक स्थिति भी बहुत अधिक प्रभावित हुई हैं।क्यों न इस बार मिट्टी के दीयों से घर-संसार को प्रकाशवान किया जाये व स्वयं घर पर मिठाइयां बनाकर उपहार स्वरूप भेंट की जाये मित्रों,परिचितों व रिश्तेदारों के साथ ही उन्हें भी जो आप व हमारे लिये दुआ करते हैं असमर्थ व असक्षम हैं ।कुछ चेहरे जिनसे हमारा इंसानियत का रिश्ता हैं उन पर भी खुशियों की चमक लायी जाये व प्रयास रहे कि ।”अंधेरा धरा पर न रहे कहीं।आओ ऐसा दीप जलाएं ।।”
खैर ! महंगाई बढे या घटे त्यौहार मनते आये हैं और मनाये जायेंगे भी क्योंकि ये दीपोत्सव आपसी प्रेम और सद्भावना का त्यौहार है।घर के अँधेरे के साथ ही मन के अँधेरे मिटाने का त्यौहार है….स्वच्छता का त्यौहार है…..तो आइये इस बार दीपोत्सव कॊ सौंधी मिट्टी के दीयों व खील-बताशोँ के साथ और हाँ आपसी बैरभाव भुलाकर मन के अंधकार कॊ मिटाकर प्रेम और उल्लास के साथ मनायें !
सभी कॊ अनंत मंगलकामनाएं ॥
सविता वर्मा “ग़ज़ल”
230, कृष्णापुरी, मुज़फ्फरनगर (उ.प्र.)